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________________ ३५२ तथा चोक्तम् ह्न तथा हि ( अनुष्टुभ् ) आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः । तस्या ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते । । ६५।। आत्मानमात्मनात्मायं युनक्त्येव निरन्तरम् । स योगभक्तियुक्तः स्यान्निश्चयेन मुनीश्वरः ।। २२८।। से रागादि भावों के परिहार में संलग्न है; वही एकमात्र योगभक्तिवाला है। उससे भिन्न अन्य कोई व्यक्ति योगभक्तिवाला नहीं हो सकता ।। १३७।। इसके बाद ‘तथा चोक्तम् ह्न तथा इसीप्रकार कहा गया है' ह्र लिखकर टीकाकार मुनिराज एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (दोहा) निज आम के यत्न से मनगति का संयोग । निज आतम में होय जो वही कहावे योग ||६५ || नियमसार आत्मप्रयत्न सापेक्ष मन की विशिष्ट गति - परिणति का ब्रह्म (अपने आत्मा) में लगाना ही योग है। तात्पर्य यह है कि पर के सहयोग के बिना मात्र स्वयं के प्रयत्न से मन का निज भगवान आत्मा में जुड़ना ही योग है । । ६५ ।। इसप्रकार अन्य ग्रन्थ के उद्धरण से अपनी बात पुष्ट करके टीकाकार मुनिराज 'तथाहि अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द स्वयं प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( दोहा ) निज आतम में आतमा को जोड़े जो योगि । योग भक्ति वाला वही मुनिवर निश्चय योगि ।। २२८ || जो मुनिराज अपने आत्मा को आत्मा में निरंतर जोड़ते हैं, युक्त करते हैं; वे मुनिराज निश्चय से योगभक्ति युक्त हैं। इसप्रकार हम देखते हैं कि यह मुक्तिप्रदाता योगभक्ति अपनी-अपनी भूमिकानुसार गृहस्थों और मुनिराजों ह्र दोनों को ही होती है । । २२८ ॥ १. ग्रन्थ का नाम एवं श्लोक संख्या अनुपलब्ध है।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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