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________________ नियमसार निरुपरागमोक्षमार्गे निरंजननिजपरमात्मानंदपीयूषपानाभिमुखो जीवः स्वात्मानं संस्थाप्यापि च करोति निवृत्तेर्मुक्त्यंगनायाः चरणनलिने परमां भक्तिं, तेन कारणेन स भव्यो भक्तिगुणेन निरावरणसहजज्ञानगुणत्वादसहायगुणात्मकं निजात्मानं प्राप्नोति । ( स्रग्धरा ) आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलितमहाशुद्धरत्नत्रयेऽस्मिन् नित्ये निर्मुक्तिहेतौ निरुपमसहजज्ञानद्दक्शीलरूपे । संस्थाप्यानंदभास्वन्निरतिशयगृहं चिच्चमत्कारभक्त्या प्राप्नोत्युच्चैरयं यं विगलितविपदं सिद्धिसीमन्तिनीशः । । २२७।। ३५० आनन्दरूपी अमृत को पीने के लिए अभिमुख यह जीव; भेदकल्पना निरपेक्ष निरुपचार रत्नत्रयात्मक निर्विकारी मोक्षमार्ग में, अपने आत्मा को, भले प्रकार स्थापित करके; निर्वृत्ति के अर्थात् मुक्तिरूपी स्त्री के चरण कमलों की परम भक्ति करता है; उस कारण से वह भव्य जीव भक्ति गुण द्वारा, निरावरण सहज ज्ञान गुणवाला होने से, असहाय गुणात्मक निज आत्मा को प्राप्त करता है । " इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि मोक्षमार्ग में आत्मा को स्थापित करना अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र को धारण करना ही निश्चय भक्ति है, निर्वृत्ति भक्ति है, निर्वाण भक्ति है। इसी निश्चय निर्वाण भक्ति से निज भगवान आत्मा की प्राप्ति होती है ।। १३६॥ इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसी भाव का पोषक एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) शिवहेतु निरुपम सहज दर्शन ज्ञान सम्यक् शीलमय । अविचल त्रिकाली आत्मा में आत्मा को थाप कर ॥ चिच्चमत्कारी भक्ति द्वारा आपदाओं से रहित । घर में बसें आनन्द से शिव रमापति चिरकाल तक || २२७ ।। मुक्ति के हेतुभूत निरुपम सहज ज्ञान - दर्शन - चारित्ररूप इस अविचलित महा शुद्ध रत्नत्रयरूप आत्मा में आत्मा को वस्तुतः भली भांति स्थापित करके यह आत्मा चैतन्य चमत्कार की भक्ति द्वारा, जिसमें से समस्त आपदायें दूर हो गई हैं तथा जो आनंद से शोभायमान है ह्र ऐसे सर्वश्रेष्ठ घर को प्राप्त करता है अर्थात् सिद्धरूपी स्त्री का स्वामी होता है । इस छन्द में मात्र यही कहा गया है कि त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा में स्वयं के
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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