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________________ परमभक्ति अधिकार ३४७ (शार्दूलविक्रीडित) ये लोकाग्रनिवासिनो भवभवक्लेशार्णवान्तं गता ये निर्वाणवधूटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्याकराः। ये शुद्धात्मविभावनोद्भवमहाकैवल्यसंपद्गुणाः तान् सिद्धानभिनौम्यहं प्रतिदिनं पापाटवीपावकान् ।।२२४।। (दोहा) सब दोषों से दूर जो शुद्धगुणों का धाम | आत्मध्यानफल सिद्धपद सूरि कहें सुखधाम ||२२३|| जिन्होंने सभी कर्मों के समूह को गिरा दिया है अर्थात् नाश कर दिया है, जो मुक्तिरूपी स्त्री के पति हैं, जिन्होंने अष्ट गुणरूप ऐश्वर्य को प्राप्त किया है तथा जो कल्याण के धाम हैं; उन सिद्ध भगवन्तों को मैं नित्य वंदन करता हूँ। इसप्रकार जिनवरों ने सिद्ध भगवन्तों की भक्ति को व्यवहारनय से निर्वृत्ति भक्ति या निर्वाण भक्ति कहा है और निश्चय निर्वाण भक्ति को रत्नत्रय भक्ति भी कहा है। ____ आचार्य भगवन्तों ने सिद्धपने को समस्त दोषों से रहित, केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का धाम और शुद्धोपयोग का फल कहा है। उक्त छन्दों में से प्रथम छन्द में अष्टकर्मों से रहित, अष्टगुणों से मंडित, शिवरमणी के पति और कल्याण के धाम सिद्ध भगवान को भक्ति पूर्वक नमस्कार किया गया है। दूसरे छन्द में निश्चय-व्यवहार भक्ति का स्वरूप समझाते हुए निश्चय रत्नत्रय को निश्चय निर्वाण भक्ति और सिद्ध भगवान के गुणगान को व्यवहार निर्वाण भक्ति कहा गया है। तीसरे छन्द में सिद्धपद को शद्धोपयोग का फल बताया गया है।।२२१-२२३ || इसके बाद सिद्ध भगवन्त की स्तुति करनेवाले दो छन्द प्रस्तुत किए हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( हरिगीत) शिववधूसुखखान केवलसंपदा सम्पन्न जो। पापाटवी पावक गुणों की खान हैं जो सिद्धगण || भवक्लेश सागर पार अर लोकाग्रवासी सभी को। वंदन करूँ मैं नित्य पाऊँ परमपावन आचरण ||२२४|| जो लोकाग्र में वास करते हैं, भव-भव के क्लेशरूपी सागर को पार को प्राप्त हुए हैं, मुक्तिरूपी स्त्री के पुष्ट स्तनों के आलिंगन से उत्पन्न सुख की खान हैं तथा शुद्धात्मा की
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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