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________________ परमसमाध्यधिकार ३३९ (शिखरिणी) त्यजाम्येतत्सर्वं ननु नवकषायात्मकमहं मुदा संसारस्त्रीजनितसुखदुःखावलिकरम् । महामोहान्धानां सततसुलभं दुर्लभतरं समाधौ निष्ठानामनवरतमानन्दमनसाम् ।।२१८।। जो दुधम्मंच सुक्कं च झाणं झाएदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१३३।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) मोहान्ध जीवों को सुलभ पर आत्मनिष्ठ समाधिरत। जो जीव हैं उन सभी को है महादुर्लभ भाव जो।। वह भवस्त्री उत्पन्न सुख-दुखश्रेणिकारकरूप है। मैं छोड़ता उस भाव को जो नोकषायस्वरूप है।।२१८|| महामोहान्ध जीवों को सदा सुलभ तथा निरन्तर आनन्द में मग्न रहनेवाले समाधिनिष्ठ जीवों को अतिदुर्लभ, संसाररूपी स्त्री से उत्पन्न सुख-दुखों की पंक्ति को करनेवाला यह नोकषायरूप समस्त विकार मैं अत्यन्त प्रमोद से छोड़ता हूँ। इस कलश में सबकुछ मिलाकर एक ही बात कही गई है कि नौ नोकषायजन्य सांसारिक सुख-दु:ख, मोहान्ध अज्ञानीजनों को सदा सुलभ ही हैं; किन्तु समाधिनिष्ठ ज्ञानी धर्मात्मा संतगणों को अति दुर्लभ हैं, असंभव है; क्योंकि वे मोहातीत हो गये हैं, सच्ची सामायिक और समाधि उन्हें ही है। टीकाकार मुनिराज संकल्प करते हैं कि मैं इन सांसारिक सुख-दु:ख के उत्पादक नोकषायरूप समस्त विकारीभावों का अत्यन्त प्रमोद भाव से त्याग करता हूँ।।२१८।। यह आगामी गाथा परमसमाधि अधिकार के समापन की गाथा है। इसमें धर्मध्यान और शक्लध्यान करनेवालों को सामायिक स्थायी है ह यह कहा गया है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत) जो धर्म एवं शक्लध्यानी नित्य ध्यावें आतमा। उन वीतरागी सन्त को जिन कहें सामायिक सदा।।१३३||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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