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________________ ३३२ नियमसार इह हिरागद्वेषाभावादपरिस्पंदरूपत्वं भवतीत्युक्तम् । यस्य परमवीतरागसंयमिनः पापाटवीपाकस्य रागोवा द्वेषो वा विकृतिनावतरति, तस्य महानन्दाभिलाषिण: जीवस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य सामायिकनामव्रतं शाश्वतं भवतीति केवलिनांशासने प्रसिद्ध भवतीति। (मंदाक्रांता) रागद्वेषौ विकृतिमिह तौ नैव कर्तुं समर्थों ज्ञानज्योति:-प्रहतदुरितानीक-घोरान्धकारे। आरातीये सहजपरमानन्दपीयूषपूरे तस्मिन्नित्ये समरसमये को विधि: को निषेधः ।।२१३।। टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यहाँ यह कह रहे हैं कि राग-द्वेष के अभाव से अपरिस्पंदरूपता, समता, अकंपता, अक्षुब्धता होती है। पापरूपी अटवी (भयंकर जंगल) को जलाने में अग्नि समान जिस परम वीतरागी संयमी को राग-द्वेष विकृति उत्पन्न नहीं करते; उस पाँच इन्द्रियों के विस्तार से रहित, देहमात्र परिग्रहधारी आनन्द के अभिलाषी जीव को सामायिक नाम का व्रत शाश्वत है तू ऐसा केवलियों के शासन में प्रसिद्ध है।" इस गाथा और उसकी टीका में मात्र यही कहा गया है कि जिन वीतरागी सन्तों को राग-द्वेष भाव, विकृति उत्पन्न नहीं करते; उन्हें सदा सामायिक ही है ।।१२८।। इस गाथा की टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( रोला) किया पापतम नाश ज्ञानज्योति से जिसने। परमसुखामृतपूर आतमा निकट जहाँ है। राग-द्वेष न समर्थ उसे विकृत करने में| उस समरसमय आतम में है विधि-निषेध क्या ।।२१३|| जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापसमूहरूप घोर अंधकार का नाश किया है, सहज परमानंद का पूर जहाँ निकट है; वहाँ राग-द्वेष विकृति करने में समर्थ नहीं हैं। उस शाश्वत समरसभावरूप आत्मतत्त्व में विधि क्या और निषेध क्या ? तात्पर्य यह है कि उसे राग-द्वेष नहीं होते हैं। 'यह ऐसा है या हमें ऐसा करना चाहिए' ह इसप्रकार के विकल्प विधि संबंधी विकल्प हैं और यह ऐसा नहीं है या हमें ऐसा नहीं करना चाहिए' ह इसप्रकार के विकल्प निषेध संबंधी विकल्प हैं। २सयाम
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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