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________________ ३३० नियमसार यस्य सन्निहितः आत्मा संयमे नियमे तपसि। तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२७।। अत्राप्यात्मैवोपादेय इत्युक्तः । यस्य खलु बाह्यप्रपंचपराङ्गमुखस्य निर्जिताखिलेन्द्रियव्यापारस्य भाविजिनस्य पापक्रियानिवृत्तिरूपे बाह्यसंयमे कायवाङ्मनोगुप्तिरूपसकलेन्द्रियव्यापारवर्जितेऽभ्यन्तरात्मनि परिमितकालाचरणमात्रेनियमे परमब्रह्मचिन्मयनियतनिश्चयान्तर्गताचारे स्वरूपेऽविचलस्थितिरूपे व्यवहारप्रपंचितपंचाचारे पंचमगतिहेतुभूते किंचनभावप्रपंचपरिहीणे सकलदुराचारनिवृत्तिकारणे परमतपश्चणेच परमगुरुप्रसादासादितनिरंजननिजकारणपरमात्मा सदा सन्निहित इति केवलिनांशासने तस्य परद्रव्यपराङ्मुखस्य परमवीतरागसम्यग्दृष्टेर्वीतरागचारित्रभाज: सामायिकव्रतं स्थायि भवतीति । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( हरिगीत) आतमा है पास जिनके नियम-संयम-तप विड़ें। उन आत्मदर्शीसंत को जिन कहें सामायिक सदा ||१२७|| जिसे संयम में, नियम में, तप में आत्मा ही समीप है; उसे सामायिक स्थायी है त ऐसा केवली के शासन में कहा है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ इस गाथा में भी आत्मा ही उपादेय है ह ऐसा कहा गया है। बाह्य प्रपंच से पराङ्गमुख और समस्त इन्द्रियव्यापार को जीतनेवाले जिस भावी जिन को पापक्रिया की निवृत्तिरूप बाह्य संयम में; काय, वचन और मनोगुप्तिरूप समस्त इन्द्रियव्यापार रहित अभ्यन्तर संयम में; मात्र सीमित काल के नियम में; निजस्वरूप में अविचल स्थितिरूप चिन्मय परमब्रह्मस्वरूप में निश्चल आचार में; व्यवहार से विस्तार से निरूपित पंचाचार में; पंचमगति के हेतुभूत, सम्पूर्ण परिग्रह से रहित, समस्त दुराचार की निवृत्ति के कारणभूत परमतपश्चरण में परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त निजकारणपरमात्मा सदा समीप है; उन परद्रव्य से पराङ्गमुख परम वीतराग सम्यग्दृष्टि एवं वीतराग चारित्रवन्त को सामायिक व्रत स्थायी है ह्न ऐसा केवलियों के शासन में कहा है।" इस गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि भावलिंगी मुनिराजों को होनेवाले अन्तर्बाह्य यम, नियम, संयम, तप आदि सभी भावों में एकमात्र आत्मा की आराधना ही मुख्य रहती है। आत्मा की आराधना से ये सभी सनाथ हैं, उसके बिना इनका कोई अर्थ नहीं है।।१२७|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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