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________________ परमसमाधि अधिकार (गाथा १२२ से गाथा १३३ तक) अथ अखिलमोहरागद्वेषादिपरभावविध्वंसहेतुभूतपरमसमाध्यधिकार उच्यते । वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण । जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ।।१२२।। वचनोच्चारणक्रियां परित्यक्त्वा वीतरागभावेन । यो ध्यायत्यात्मानं परमसमाधिर्भवेत्तस्स ।।१२२।। परमसमाधिस्वरूपाख्यानमेतत् । क्वचिदशुभवंचनार्थं वचनप्रपंचांचितपरमवीतरागसर्वज्ञस्तवनादिकं कर्तव्यं परमजिनयोगीश्वरेणापि । परमार्थत: प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवाग्विषय विगत आठ अधिकारों में क्रमश: जीव, अजीव, शुद्धभाव, व्यवहारचारित्र, परमार्थप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान, परम आलोचना और शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त की चर्चा हुई। अब इस नौवें अधिकार में परमसमाधि की चर्चा आरंभ करते हैं। इस परमसमाधि अधिकार को आरंभ करते हुए टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव लिखते हैं ह्न “अब समस्त मोह-राग-द्वेषादि परभावों के विध्वंस का हेतुभूत परमसमाधि अधिकार कहा जाता है।" अब नियमसार की गाथा १२२वीं एवं परमसमाधि अधिकार की पहली गाथा में परमसमाधि के धारक का स्वरूप समझाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत ) वचन उच्चारण क्रिया तज वीतरागी भाव से। ध्यावे निजातम जो समाधि परम होती है उसे ||१२२।। वचनों के उच्चारण की क्रिया छोड़कर वीतरागभाव से जो आत्मा को ध्याता है; उसे परमसमाधि होती है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “यह परमसमाधि के स्वरूप का कथन है। यद्यपि अशुभ से बचने के लिए कभीकभी दिव्यध्वनि से मंडित परमवीतरागी तीर्थंकर सर्वज्ञ देव का स्तवनादि परम जिनयोगीश्वरों को भी करने योग्य कहा गया है; तथापि परमार्थ से प्रशस्त-अप्रशस्त सभी वचन संबंधी
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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