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________________ ३०८ नियमसार (मंदाक्रांता) यः शुद्धात्मन्यविचलमना: शुद्धमात्मानमेकं नित्यज्योति:प्रतिहततम:पुंजमाद्यन्तशून्यम् । ध्यात्वाजस्रं परमकलया सार्धमानन्दमूर्ति जीवन्मुक्तो भवति तरसा सोऽयमाचारराशिः ।।१९०।। परमपारिणामिकभावरूप निज भगवान आत्मा के सम्यक् ज्ञान और उसमें ही अपनेपन के श्रद्धानपूर्वक होनेवाले धर्मध्यानरूप शुद्धभाव ही निश्चयप्रायश्चित्त हैं। ध्यान रहे कि इस गाथा की टीका में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि एकमात्र परम-पारिणामिकभाव को छोड़कर शेष सभी भाव परभाव हैं। औदयिकभाव तो परभाव हैं ही, किन्तु धर्मरूप औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकभाव भी परभाव हैं; क्योंकि उनके आश्रयसे, उनमें अपनापन स्थापित करने से, उनका ध्यान करने से सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं होती; अत: उनके आश्रय से मोक्ष की भी प्राप्ति नहीं होती। यद्यपि वे प्राप्त करने की अपेक्षा से तो उपादेय हैं, पर ध्यान के ध्येय नहीं हैं। इस सब कथन का सार यह है कि उक्त परमभावरूप निजकारणपरमात्मा के ध्यान में सभी धर्म समा जाते हैं; अत: उक्त ध्यान ही निश्चयप्रायश्चित्त है।।११९|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (रोला) परमकला युत शुद्ध एक आनन्दमूर्ति है। तमनाशक जो नित्यज्योति आद्यन्त शुन्य है। उस आतम को जो भविजन अविचल मनवाला। ध्यावे तो वह शीघ्र मोक्ष पदवी को पाता ||१९०|| आदि-अंत रहित और परमकला सहित, नित्यज्योति द्वारा अंधकार के समूह का नाशक, एक, शुद्ध और आनन्दमूर्ति आत्मा को जो जीवशुद्ध आत्मा में अविचल मनवाला होकर निरंतर ध्याता है; वह चारित्रवान जीव शीघ्र जीवन्मुक्त होता है। इस छन्द में मात्र इतना ही कहा है कि जो भव्यजीव शुद्ध आत्मा में अटूट श्रद्धा रखनेवाला है; वह भव्यजीव जब आदि-अंतरहित, आनन्द मूर्ति एक आत्मा का ध्यान करता है तो निश्चितरूप से अति शीघ्र मुक्तिपद प्राप्त करता है।।१९०|| विगत गाथा में यह कहा था कि ध्यान ही प्रायश्चित्त है और अब इस गाथा में यह कह रहे हैं कि आत्मा का ध्यान करनेवाले के नियम से नियम (चारित्र) होता है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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