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________________ शुद्ध निश्चयप्रायश्चित्ताधिकार उपेन्द्रवज्रा ) नामामि नित्यं परमात्मतत्त्वं मुनीन्द्रचित्ताम्बुजगर्भवासम् । विमुक्तिकांतारतसौख्यमूलं विनष्टसंसारद्रुममूलमेतत् । । १८८ । । णंताणंतभवेण समज्जियसुहअसुहकम्मसंदोहो । तवचरणेण विणस्सदि पायच्छित्तं तवं तम्हा ।। ११८ । । अनन्तानन्तभवेन समर्जितशुभाशुभकर्मसंदोहः । तपश्चरणेन विनश्यति प्रायश्चित्तं तपस्तस्मात् । । ११८ । । ( भुजंगप्रयात ) भवरूप पादप जड़ का विनाशक । मुनीराज के चित कमल में रहे नित ॥ अर मुक्तिकांतारतिजन्य सुख का । है मूल आतम उसको नमन हो || १८८ || ३०५ मुनिराजों के चित्तकमल के भीतर जिसका आवास है, जो मुक्तिरूपी कान्ता की रति के सुख का मूल है और जिसने संसाररूपी वृक्ष के मूल (जड़) का नाश किया है; ऐसे इस परमात्मतत्त्व को मैं नित्य नमन करता हूँ । उक्त छन्द में; जिसका आवास मुनिराजों के चित्तकमल है; उस निजात्मारूप परमात्मतत्त्व को नमस्कार किया गया है; क्योंकि सभी मुनिराज निरन्तर उसका ही ध्यान करते हैं। उनके ध्यान का एकमात्र ध्येय वह भगवान आत्मा ही है। वह परमात्मतत्त्व मुक्तिकान्ता की रति के सुख का मूल है। तात्पर्य यह है कि उसमें अपनापन स्थापित करने से, उसके ज्ञान-श्रद्धानपूर्वक उसका ध्यान करने से मुक्ति में प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है। उक्त परमात्मतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान और ध्यान से संसाररूपी वृक्ष की तो जड़ ही उखड़ जाती है; अत: एकमात्र वही श्रद्धेय है, परमज्ञान का ज्ञेय और ध्यान का ध्येय भी वही है ।। १८८ ।। विगत गाथा में तपश्चरण को प्रायश्चित्त कहा था । उसी बात को इस गाथा में भी कह रहे हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( हरिगीत ) अनंत भव में उपार्जित सब करमराशि शुभ - अशुभ | भसम हो तपचरण से अतएव तप प्रायश्चित्त है ॥ ११८ ॥ विगत अनन्तानन्त भवों में उपार्जित शुभाशुभ कर्मराशि तपश्चरण से नष्ट होती है; इसलिए तप ही प्रायश्चित्त है ।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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