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________________ शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार ३०३ (शालिनी) प्रायश्चित्तं झुत्तमानामिदं स्यात् स्वद्रव्येऽस्मिन् चिन्तनं धर्मशुक्लम् । कर्मव्रातध्वान्तसद्बोधतेजोलीनं स्वस्मिन्निर्विकारे महिम्नि ।।१८५।। (मंदाक्रांता) आत्मज्ञानाद्भवति यमिनामात्मलब्धिः क्रमेण ज्ञानज्योति-निहतकरण-ग्रामघोरान्धकारा । कारण्योद्भवदव-शिखाजालकाना-मजस्रं प्रध्वंसेऽस्मिन् शमजलमयीमाशु धारांवमन्ती ।।१८६।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (रोला) अरे प्रायश्चित्त उत्तम पुरुषों को जो होता। धर्मध्यानमय शुक्लध्यानमय चिन्तन है वह।। कर्मान्धकार का नाशक यह सदबोध तेज है। निर्विकार अपनी महिमा में लीन सदा है।।१८५|| उत्तम पुरुषों को होनेवाला यह प्रायश्चित्त वस्तुतः स्वद्रव्य का धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप चिन्तन है, कर्मसमूह के अंधकार को नष्ट करने के लिए सम्यग्ज्ञानरूपी तेज है और अपनी निर्विकार महिमा में लीनतारूप है। उक्त छन्द में स्वद्रव्य के चिन्तनात्मक धर्मध्यान और शुक्लध्यान को प्रायश्चित्त कहा है; जबकि महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में चिन्तन के निरोध को ध्यान कहा है। यद्यपि धर्मध्यान के सभी भेद चिन्तनात्मक ही हैं, तथापि शुक्लध्यान तो मा चिंतहह्न चिन्तवन मत करो के रूप में प्रतिष्ठित है। एक बात और भी है कि यहाँ प्रायश्चित्त को चिन्तनरूप कहकर भी निज महिमा में लीनतारूप भी कहा है। यह प्रायश्चित्त की महिमा वाचक छन्द है; अत: निश्चयव्यवहार प्रायश्चित्त की संधि बिठाकर यथायोग्य समझ लेना चाहिए ।।१८५।। तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) आत्म की उपलब्धि होती आतमा के ज्ञान से। मुनिजनों के करणरूपी घोरतम को नाशकर|| कर्मवन उद्भव भवानल नाश करने के लिए। वह ज्ञानज्योति सतत् शमजलधार को है छोड़ती।।१८६|| १. द्रव्यसंग्रह, गाथा ५६
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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