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________________ २८८ नियमसार (हरिणी) जयति सहजं तत्त्वं तत्त्वेषु नित्यमनाकुलं सततसुलभं भास्वत्सम्यग्दृशां समतालयम् । परमकलया सार्धं वृद्धं प्रवृद्धगुणैर्निजैः स्फुटितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम् ।।१७६।। सहजपरमं तत्त्वं तत्त्वेषु सप्तसु निर्मलं सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम् । विशदविशदं नित्यं बाह्यप्रपंचपराङ्मुखं किमपि मनसां वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुमः ।।१७७।। कभी-कभी और कहीं-कहीं ऐसा कहते लोग तो आज भी मिल जाते हैं कि यदि तुम पाप के समान पुण्य को त्यागने योग्य कहोगे तो फिर हम या तो पुण्य कार्य करना भी छोड़ देंगे या फिर जिसप्रकार पुण्य का उपदेश करते हैं, उसीप्रकार पाप का उपदेश करने लगेंगे। उनसे कहते हैं कि उपदेश तो सदा ही ऊपर चढने का ही दिया जाता है. नीचे गिरने का नहीं। अत: पुण्य को छोड़ने के उपदेश से पाप करने का उपदेश देने का भाव ग्रहण करना तो ठीक नहीं है। हो सकता है कि इसीप्रकार की कोई प्रवृत्ति उस समय रही हो, जिसके कारण टीकाकार मुनिराज को इसप्रकार का छंद लिखने का भाव आया हो । जो भी हो, पर शुद्धज्ञानघन सर्वोत्तम आत्मतत्त्व के जानकार तो इसप्रकार की सरागता को प्राप्त नहीं हो सकते ।।१७५।। छठवें और सातवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (रोला) सब तत्त्वों में सहज तत्त्व निज आतम ही है। सदा अनाकुल सतत् सुलभ निज आतम ही है। परमकला सम्पन्न प्रगट घर समता का जो। निज महिमारत आत्मतत्त्व जयवंत सदा है।।१७६|| सात तत्त्व में प्रमुख सहज सम्पूर्ण विमल है। निरावरण शिव विशद नित्य अत्यंत अमल है।। उसे नमन जो अति दूर मुनि-मन-वचनों से। परपंचों से विलग आत्म आनन्द मगन है।।१७७|| तत्त्वों में वह सहज आत्मतत्त्व सदा जयवन्त है; जो सदा अनाकुल है, निरन्तर सुलभ है, प्रकाशमान है, सम्यग्दृष्टियों को समता का घर है, परमकला सहित विकसित, निजगुणों से
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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