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________________ २८६ ( शालिनी ) शुद्धं तत्त्वं बुद्धलोकत्रयं यद् बुद्ध्वा बुद्ध्वा निर्विकल्पं मुमुक्षुः । तत्सिद्ध्यर्थं शुद्धशीलं चरित्वा सिद्धिं यायात् सिद्धिसीमन्तिनीशः ।।१७३।। ( स्रग्धरा ) सानन्दं तत्त्वमज्जज्जिनमुनिहृदयाम्भोजकिंजल्कमध्ये निर्व्याबाधं विशुद्धं स्मरशरगहनानीकदावाग्निरूपम् । शुद्धज्ञान- प्रदीप - प्रहत - यमिमनोगेह - घोरान्धकारं तद्वन्दे साधुवन्द्यं जननजलनिधौ लंघने यानपात्रम् ।।१७४।। ध्यान रहे जिसप्रकार लोक में चिन्तामणिरत्न को चिन्ताओं को हरनेवाला, कल्पवृक्ष को इच्छानुसार फल देनेवाला माना जाता है; उसीप्रकार कामधेनु गाय को सभी कामनायें पूरी करनेवाला माना गया है ।। १७२ ॥ तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (रोला ) तीन लोक के ज्ञायक निर्विकल्प तत्त्व को । मुमुक्षु जान उसी की सिद्धि के लिए ।। शुद्ध शील आचरे रमे निज आतम में नित । नियमसार सिद्धि प्राप्त कर मुक्तिवधु के स्वामी होते ॥ १७३॥ मुमुक्षु जीव तीन लोक को जाननेवाले शुद्ध निर्विकल्पतत्त्व को भलीभाँति बारंबार जानकर, उसकी सिद्धि के लिए शुद्ध शील का आचरण करके सिद्धिरूपी स्त्री का स्वामी होता है, सिद्धि को प्राप्त करता है। इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मा का ज्ञान, श्रद्धान और उसी में लीनतारूप चारित्र ही मुक्ति का मार्ग है, मोक्ष प्राप्त करने का सच्चा उपाय है ।। १७३ ।। चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( रोला ) आत्मतत्त्व में मग्न मुनिजनों के मन में जो । वह विशुद्ध निर्बाध ज्ञानदीपक निज आतम || मुनिमनत का नाशक नौका भवसागर की । साधुजनों से वंद्य तत्त्व को वंदन करता || १७४||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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