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________________ २८४ नियमसार भटाभिधानप्रधानब्रह्मचर्यव्रतोपार्जितनिरुपमबलेन च, दानादिशुभकर्मोपार्जितसंपत्वृद्धिविलासेन अथवा बुद्धितपोवैकुर्वणौषधरसबलाक्षीणद्धिभिः सप्तभिर्वा, कमनीयकामिनीलोचनानन्देन वपुर्लावण्यरसविसरेण वा आत्माहंकारो मानः । गुप्तपापतो माया । युक्तस्थले धनव्ययाभावो लोभः, निश्चयेन निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतत्त्वपरिग्रहात् अन्यत् परमाणुमात्रद्रव्यस्वीकारो लोभः । एभिश्चतुर्भिर्वा भावैः परिमुक्तःशुद्धभाव एव भावश प्रदर्शिभिः परमवीतरागसुखामृतपानपरितृप्तैर्भगवद्धिरर्हद्भिरभिहित इति । (मालिनी) अथ जिनपतिमार्गालोचनाभेदजालं परिहृतपरभावो भव्यलोकः समन्तात् । तदखिलमवलोक्य स्वस्वरूपंच बुद्ध्वा स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१७१।। से; ब्रह्मचर्य व्रत द्वारा उपार्जित शतसहस्त्रकोटिभट सुभट समान निरुपम बल से; दानादि शुभकर्म द्वारा उपार्जित सम्पत्ति की वृद्धि के विलास से; बुद्धि, बल, विक्रिया, औषधि, रस, बल और अक्षीण ह्न इन सात ऋद्धियों से अथवा सुन्दर कामनियों के लोचन को आनन्द प्राप्त करानेवाले शरीर लावण्य रस के विस्तार से होनेवाला आत्म-अहंकार मान है। गुप्त पाप से माया होती है। योग्य स्थान पर धन व्यय नहीं करना लोभ है। निश्चय से समस्त परिग्रह का परित्याग जिसका लक्षण है ह ऐसे निरंजन निज परमात्मतत्त्व के परिग्रह से अन्य परमाणुमात्र द्रव्य का स्वीकार लोभ है। इन चारों भावों से रहित शुद्धभाव ही भावशुद्धि है ह्न ऐसा भव्यजीवों को; लोकालोकदर्शी परमवीतराग सुखरूपी अमृत के पीने से तृप्त अरहंत भगवानों ने कहा है।" ___ इस गाथा और इसकी टीका में भावशुद्धि नामक परम-आलोचना का स्वरूप स्पष्ट करते हुए मात्र यही कहा गया है कि मद, मान, माया और लोभ रहित परिणाम ही भावशुद्धि है। टीका में मद, मान, माया और लोभ का स्वरूप उक्त प्रकरण के संदर्भ में स्पष्ट किया गया है। यहाँ काम-वासना को मद कहा गया है। मान का स्वरूप स्पष्ट करते हुएछह बिन्दु रखे गये हैं। पूज्यत्व, कुल-जाति संबंधी विशुद्धि, सुभटपना, सम्पत्ति, ऋद्धियाँ और शारीरिक सुन्दरता के कारण होनेवाले अभिमान को मान कहा है। इसीप्रकार व्यवहारनय से योग्यस्थान में धन व्यय के अभाव को और निश्चयनय से निज शुद्धात्मा को छोड़कर अन्य परमाणुमात्र परद्रव्य के स्वीकार को लोभ कहा गया है।।११२।। १. शत सहस्त्र माने एक लाख और कोटि माने करोड़ ह्र इसप्रकार एक लाख करोड़ योद्धाओं के बराबर बल धारण करनेवाले को शतसहस्त्रकोटिभट कहते हैं।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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