SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ मंदाक्रांता ) आसंसारादखिल - जनता - तीव्रमोहोदयात्सा मत्ता नित्यं स्मरवशगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा । ज्ञानज्योतिर्धवलितककुम्भमंडलं शुद्धभावं मोहाभावात्स्फुटितसहजावस्थमेषा प्रयाति ।। १६१।। कर्म से दूरी के कारण प्रगट सहजावस्थारूप विद्यमान है, आत्मनिष्ठ सभी मुनिराजों की मुक्ति का मूल है, एकाकार है, निजरस के विस्तार से भरपूर होने के कारण पवित्र है, सनातन पुराण पुरुष है; वह शुद्ध-शुद्ध एक पंचमभाव सदा जयवंत है । इस छन्द में सदा जयवन्त पंचमभाव का माहात्म्य बताया गया है। कहा गया है कि यह परमपारिणामिकभावरूप पंचमभाव आत्मनिष्ठ मुनिराजों की मुक्ति का मूल है, परमपवित्र है, एकाकार है, अनादि-अनन्त सनातन सत्य है । ऐसा यह एक शुद्ध-शुद्ध पंचमपरमभाव सदा जयवंत है। ध्यान रहे यहाँ परमपंचमभाव की शुद्धता पर विशेष वजन डालने के लिए शुद्ध पद का प्रयोग दो बार किया गया है । तात्पर्य यह है कि यह परमभाव स्वभाव से तो शुद्ध है ही, पर्याय की शुद्धता का भी एकमात्र आश्रयभूत कारण है ।। १६० ।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है नियमसार ( हरिगीत ) इस जगतजन की ज्ञानज्योति अरे काल अनादि से । रे मोहवश मदमत्त एवं मूढ है निजकार्य में । निर्मोह तो वह ज्ञानज्योति प्राप्त कर शुधभाव को । उज्ज्वल करे सब ओर से तब सहजवस्था प्राप्त हो । १६१ ॥ अनादि संसार से समस्त जनसमूह की तीव्र मोह के उदय के कारण जो ज्ञानज्योति निरंतर मत्त है, काम के वश है और निजकार्य में विशेषरूप से मुग्ध है, मूढ है; वही ज्ञानज्योति मोह के अभाव से उस शुद्धभाव को प्राप्त करती है कि जिस शुद्धभाव ने सभी दिशाओं को उज्ज्वल किया है और सहजावस्था प्राप्त की है। उक्त छन्द में ज्ञानज्योति की महिमा बताई गई है। कहा गया है कि मोह के सद्भाव में अनादिकाल से समस्त संसारीजीवों की जो ज्ञानज्योति मत्त हो रही थी, काम के वश हो रही थी; वही ज्योति मोह के अभाव में शुद्धभाव को प्रगट करती हुई सभी दिशाओं को उज्ज्वल करती है और सहजावस्था को प्राप्त करती है। ज्ञानज्योति का सम्यग्ज्ञान के रूप स्फुरायमान होना ही आलुंछन है, आलुंछन नाम की आलोचना है, निश्चय आलोचना है ।। १६१।।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy