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________________ २७४ नियमसार कर्ममहीरुहमूलच्छेदसमर्थः स्वकीयपरिणामः । स्वाधीन: समभाव: आलुञ्छनमिति समुद्दिष्टम् ।। ११० ।। परमभावस्वरूपाख्यानमेतत् । भव्यस्य पारिणामिकभावस्वभावेन परमस्वभावः औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावानामगोचर: स पंचमभाव: । अत एवोदयोदीरणक्षयक्षयोपशमविविधविकारविवर्जितः । अतः कारणादस्यैकस्य परमत्वम् इतरेषां चतुर्णां विभावानामपरमत्वम् । निखिलकर्मविषवृक्षमूलनिर्मूलनसमर्थ: त्रिकालनिरावरणनिजकारणपरमात्मस्वरूपश्रद्धानप्रतिपक्षतीव्रमिथ्यात्वकर्मोदयबलेन कुद्दष्टेरयं परमभावः सदा निश्चयतो विद्यमानोऽप्यविद्यमान एव । नित्यनिगोदक्षेत्रज्ञानामपि शुद्धनिश्चयनयेन स परमभावः अभव्यत्वपारिणामिक इत्यनेनाभिधानेन न संभवति । यथा मेरोरधोभागस्थितसुवर्णराशेरपि सुवर्णत्वं, अभव्यानामपि तथा परमस्वभावत्वं; वस्तुनिष्ठं, न व्यवहारयोग्यम् । सुद्दशामत्यासन्नभव्यजीवानां सफलीभूतोऽयं परमभावः सदा निरंजनत्वात्; यतः सकलकर्मरूपी वृक्ष के मूल (जड़) को छेदने में समर्थ समभावरूप परिणामको आलुंछ कहा गया है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यह परमभाव के स्वरूप का कथन है । भव्यजीवों का परमपारिणामिकभावरूप स्वभाव होने से जो परमस्वभाव है; वह परमस्वभाव औदयिकादि चार विभावस्वभावों से अगोचर होने से पंचमभाव कहा जाता है। वह पंचमभाव उदय, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशम ह्न इन विविध विकारों से रहित है। इसकारण से इस एक पंचमभाव को ही परमपना है, शेष चार विभावभाव अपरमभाव हैं । समस्त कर्मरूपी विषवृक्ष को मूल से उखाड़ देने में समर्थ वह परमभाव; त्रिकाल निरावरण निज कारणपरमात्मा के स्वरूप की श्रद्धा से प्रतिपक्ष (विरुद्ध) तीव्र मिथ्यात्वकर्म के उदय के कारण कुदृष्टियों को, सदा विद्यमान होने पर भी निश्चयनय से अविद्यमान ही है । नित्यनिगोद के जीवों को भी, वह परमभाव शुद्धनिश्चयनय से अभव्यत्वपारिणामिक नाम से संभव नहीं है। जिसप्रकार सुमेरु पर्वत के अधोभाग में स्थित सुवर्णराशि को भी स्वर्णपना है; उसीप्रकार अभव्यों को भी परमस्वभावपना है। ध्यान रहे वह परमस्वभाव वस्तुनिष्ठ है, व्यवहारयोग्य नहीं है । तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार सुमेरु की तलहटी में विद्यमान सोना यद्यपि विद्यमान है; तथापि वह कभी उपयोग में नहीं लाया जा सकता; उसीप्रकार यद्यपि अभव्य के भी परमस्वभाव विद्यमान है; तथापि उसके आश्रय से पर्याय में मुक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती । सुदृष्टियों को अर्थात् अति आसन्न भव्यजीवों को यह परमस्वभाव सदा निरंजनपने के
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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