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________________ २७० ( मंदाक्रांता ) आत्मा स्पष्टः परमयमिनां चित्तपंकेजमध्ये ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितध्वान्तपुंजः पुराण: । सोऽतिक्रान्तो भवति भविनां वाङ्मनोमार्गमस्मि - न्नारातीये परमपुरुषे को विधि: को निषेधः ।। १५५ ।। नियमसार इस छन्द में अत्यन्त भक्तिभाव से सिद्ध भगवान की स्तुति की गई है। कहा गया है जो भगवान आत्मा आत्मा के द्वारा आत्मा को आत्मा में ही रहनेवाला जानता है, देखता है; वह आत्मा अल्पकाल में ही मुक्ति की प्राप्ति करता है, वहाँ प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रिय आनन्द को भोगता है । अतीन्द्रिय आनन्द का उपभोक्ता वह भगवान आत्मा इन्द्रों, नरेन्द्रों, विद्याधरों, भूमिगोचरी राजाओं; यहाँ तक कि संयमी सन्तों के संघों से भी पूजा जाता है। सभी से वंदित उन सिद्ध भगवान को मैं भी सिद्धों में प्राप्त होनेवाले गुणों को प्राप्त करने की अभिलाषा से वंदन करता हूँ ।। १५४।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) जगतजन के मन-वचन से अगोचर जो आतमा । वह ज्ञानज्योति पापतम नाशक पुरातन आतमा ॥ जो परम संयमिजनों के नित चित्त पंकज में बसे । उसकी कथा क्या करें क्या न करें हम नहिं जानते || १५५ ॥ जो पुराण पुरुष भगवान आत्मा उत्कृष्ट संयमी सन्तों के चित्तकमल में स्पष्ट है और जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापान्धकार के पुंज का नाश किया है; वह आत्मा संसारी जीवों के मन व वचन मार्ग से पार है, अगोचर है। इस अत्यन्त निकट परमपुरुष के संबंध में हम क्या विधि और क्या निषेध करें ? इस छन्द में पुराण पुरुष भगवान आत्मा की स्तुति की गई है। कहा गया है कि वह त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा सन्तों के चित्त कमल में अत्यन्त स्पष्ट है। तात्पर्य यह है कि संतगण उसके स्वरूप को भलीभाँति जानते हैं। वह अपने ज्ञानस्वभाव से मोहान्धकार का नाशक है, अज्ञानी जनों के मन और वचन के जाल में नहीं आता, उनके लिए अगोचर है । इसप्रकार अत्यन्त निकटवर्ती परमपुरुष निजात्मा के बारे में हम क्या कहें, क्या न कहें; कुछ समझ में नहीं आता; क्योंकि वह विधि-निषेध के विकल्पों से पार है । तात्पर्य यह है कि वह कैसा है और कैसा नहीं है; यह वाणी से कहे जाने योग्य नहीं है; अपितु अनुभवगम्य है ।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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