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________________ २५४ नियमसार (हरिणी) जयति समता नित्यं या योगिनामपि दुर्लभा निजमुखसुखवार्धिप्रस्फारपूर्णशशिप्रभा। परमयमिनां प्रव्रज्यास्त्रीमन:प्रियमैत्रिका मुनिवरगणस्योच्चैः सालंक्रिया जगतामपि ।।१४१।। णिक्कसायस्स दान्तस्स सूरस्स ववसायिणो। संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे ।।१०५।। (हरिगीत ) जो योगियों को महादुर्लभ भाव अपरंपार है। त्रैलोक्यजन अर मुनिवरों का अनोखालंकार है। सुखोदधि के ज्वार को जो पूर्णिमा का चन्द्र है। दीक्षांगना की सखी यह समता सदा जयवंत है।।१४१।। जो योगियों को भी दुर्लभ है, आत्माभिमुख सुख के सागर में ज्वार लाने के पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान है, परम संयमी पुरुषों की दीक्षारूपी स्त्री के मन को लुभाने के लिए सखी के समान है और मुनिवरों तथा तीन लोक का अतिशयकारी आभूषण है; वह समताभाव सदा जयवंत है। इस छन्द में भी समताभाव के ही गीत गाये हैं। योगियों को दुर्लभ यह समताभाव अतीन्द्रिय आनंद के सागर में ज्वार लाने के लिए पर्णमासी के चंद्रमा के समान है। यह तो आप जानते ही हैं कि पूर्णमासी के दिन सागर में ज्वार आता है और अमावस्या के दिन भाटा होता है। तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार पूर्णमासी के चन्द्रमा को देखकर समुद्र उमड़ता है, उसमें पानी की बाढ़ आती है और अमावस्या के दिन चन्द्रमा के वियोग में सागर शान्त हो जाता है, उदास हो जाता है, पानी किनारे से दूर चला जाता है; उसीप्रकार आत्मारूपी सागर में समतारूपी पूर्णचन्द्र के उदय होने पर अतीन्द्रिय आनन्दरूपी जल की बाढ आ जाती है। यह समता दीक्षारूपी पत्नी की सखी है तथा सन्तों और सभी लोगों का आभूषण है। अतः आत्मार्थी भाई-बहिनों को समता की शरण में जाना चाहिए; क्योंकि यह समता ही निश्चयप्रत्याख्यान है।।१४१।। अब इस गाथा में यह बताते हैं कि निश्चयप्रत्याख्यान करनेवाले सन्त कैसे होते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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