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________________ २५२ नियमसार परिणते: न मे काप्याशा विद्यते; परमसमरसीभावसनाथपरमसमाधिं प्रपद्येऽहमिति । तथा चोक्तं श्री योगीन्द्रदेवैः ह्न (वसंततिलका) मुक्त्वालसत्वमधिसत्त्वबलोपपन्न: स्मृत्वा परांच समतां कुलदेवतां त्वम् । संज्ञानचक्रमिदमंग गृहाण तूर्ण मज्ञान-मन्त्रि-युत-मोहरिपू-पमर्दि ।।५७।। के कारण मुझे कोई भी आशा नहीं है, परम समरसीभाव से संयुक्त परम समाधि का मैं आश्रय करता हूँ।" इस गाथा में आचार्यदेव द्वारा अत्यन्त सरल व सीधी-सपाट भाषा में यह कहा गया है कि मेरा तो सभी जीवों के प्रति समताभाव है। मेरा किसी से कोई वैर-विरोध नहीं है। मेरी भावना तो यही है कि मैं सभी प्रकार की आशा-आकांक्षा को छोड़कर समाधि को प्राप्त करूँ। यह आचार्यदेव ने उत्तमपुरुष में सभी भावलिंगी सन्तों की ओर से कहा है। यह न केवल उनकी बात है, अपितु सभी सन्तों की यही भावना होती है। मानसिक विकल्पों को आधि, शारीरिक विकल्पों को व्याधि और परपदार्थों संबंधी विकल्पों को उपाधि कहते हैं। उक्त तीनों प्रकार के विकल्पों से मुक्त होकर निर्विकल्पदशा को प्राप्त करना ही समाधि है। सभी सन्तों की यह समाधिस्थ होने की भावना ही निश्चयप्रत्याख्यान है।।१०४|| इसके बाद 'तथा चोक्तं श्री योगीन्द्रदेवैः ह्न तथा श्री योगीन्द्रदेव ने भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (रोला) हे भाई! तुम महासबल तज कर प्रमाद अब | समतारूपी कुलदेवी को याद करो तुम || अज्ञ सचिव युत मोह शत्रु का नाशक है जो। ऐसे सम्यग्ज्ञान चक्र को ग्रहण करो तुम ||५७|| हे भाई! स्वाभाविक बल सम्पन्न तुम प्रमाद को छोड़कर उत्कृष्ट समतारूपी कुलदेवी का स्मरण करके अज्ञानमंत्री सहित मोहराजारूप शत्रु का नाश करनेवाले सम्यग्ज्ञानरूपी चक्र को शीघ्र ग्रहण करो। १. योगीन्द्रदेव, अमृताशीति, श्लोक २१
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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