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________________ २४६ नियमसार (मंदाक्रांता) एको याति प्रबलदुरघाञ्जन्म मृत्युं च जीव: कर्मद्वन्द्वोद्भवफलमयं चारुसौख्यं च दुःखम् । भूयो भुक्ते स्वसुखविमुखः सन् सदा तीव्रमोहा देकं तत्त्वं किमपि गुरुतः प्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन् ।।१३७।। एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे वाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।।१०२।। इसके बाद एक छन्द टीकाकार स्वयं लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (वीर) जीव अकेला कर्म घनेरे उनने इसको घेरा है। तीव्र मोहवश इसने निज से अपना मुखड़ा फेरा है।। जनम-मरण के दुःख अनंतेइसने अबतक प्राप्त किये। गुरु प्रसाद से तत्त्व प्राप्त कर निज में किया वसेरा है।।१३७।। जीव अकेला ही प्रबल दुष्टकर्मों के फल जन्म और मरण को प्राप्त करता है। तीव्र मोह के कारण आत्मीय सुख से विमुख होता हुआ कर्मद्वन्द्व से उत्पन्न सुख-दुःख को यह जीव स्वयं बारंबार अकेला ही भोगता है तथा किसी भी प्रकार से सद्गुरु द्वारा एक आत्मतत्त्व प्राप्त करके अकेला ही उसमें स्थित होता है। इस छन्द में भी यही कहा गया है कि यह आत्मा अनादिकालीन तीव्र मोह के कारण आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रिय सुख से विमुख होकर कर्मजन्य सुख-दु:खों को अकेला ही भोग रहा है। यदि इसे सद्गुरु के सत्समागम से आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो जावे तो यह जीव अकेला ही उसमें स्थापित हो सकता है। स्वयं में स्थापित होना निश्चयप्रत्याख्यान है। इस निश्चय-प्रत्याख्यान का कार्य इस जीव को स्वयं ही करना होगा; क्योंकि जब जन्म-मरण में जीव अकेला ही रहता है, संसार परिभ्रमण और मुक्ति प्राप्त करने में भी अकेला ही रहता है तो फिर निश्चयप्रत्याख्यान में किसी का साथ होना कैसे संभव है ?||१३७|| ___ अब इस गाथा में यह कहते हैं कि मेरा तो एकमात्र भगवान आत्मा ही है, अन्य कुछ भी मेरा नहीं है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत) ज्ञान-दर्शनमयी मेरा एक शाश्वत आतमा। शेष सब संयोगलक्षण भाव आतम बाह्य हैं।।१०२।।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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