SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निश्चयप्रत्याख्यान अधिकार (गाथा ९५ से गाथा १०६ तक) अथेदानीं सकलप्रव्रज्यासाम्राज्यविजयवैजयन्तीपृथुलदंडमंडनायमानसकलकर्मनिर्जराहेतुभूतनिःश्रेयसनिश्रेणीभूतमुक्तिभामिनीप्रथमदर्शनोपायनीभूतनिश्चयप्रत्याख्यानाधिकारः कथ्यते । तद्यथा ह्न अत्र सूत्रावतारःह्न मोत्तूण सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स ।।९५।। मुक्त्वा सकलजल्पमनागतशुभाशुभनिवारणं कृत्वा । आत्मानं यो ध्यायति प्रत्याख्यानं भवेत्तस्य ।।९५।। निश्चयनयप्रत्याख्यानस्वरूपाख्यानमेतत् । अत्र व्यवहारनयादेशात् मुनयो भुक्त्वा दैनं दैनं पुनर्योग्यकालपर्यन्तं प्रत्यादिष्टान्नपानखाद्यलेह्यरुचयः, एतद्व्यवहारप्रत्याख्यानस्वरूपम् । निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार की चर्चा आरंभ करते हुए टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव लिखते हैं ह्न अब यहाँ सकल प्रव्रज्यारूप साम्राज्य की विजयपताका के विशाल दण्ड की शोभा के समान, समस्त कर्मों की निर्जरा के हेतुभूत, मोक्ष की सीढ़ी, मुक्तिरूपी स्त्री के प्रथम दर्शन की भेंटरूप निश्चयप्रत्याख्यान अधिकार कहा जा रहा है। वह इसप्रकार है ह्न अब गाथा सूत्र का अवतार होता है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) सब तरह के जल्प तज भावी शुभाशुभ भाव को। जो निवारण कर आत्म ध्यावे उसे प्रत्याख्यान है।।९५|| सम्पूर्ण जल्प अर्थात् सम्पूर्ण वचन विस्तार को छोड़कर और भावी शुभ-अशुभ भावों का निवारण करके जो मुनिराज आत्मा को ध्याते हैं, तब उन मुनिराजों को प्रत्याख्यान होता है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यह निश्चयनय से कहे गये प्रत्याख्यान के स्वरूप का आख्यान है। यहाँ व्यवहारनय की अपेक्षा मुनिराज दिन-दिन में भोजन करके फिर योग्यकाल तक के लिए अन्न, पीने योग्य पदार्थ, खाद्य और लेह्य की रुचि छोड़ते हैं ह्न यह व्यवहारप्रत्याख्यान का स्वरूप है।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy