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________________ २१५ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार मिच्छादसणणाणचरित्तं चइऊण णिरवसेसेण । सम्मत्तणाणचरणं जो भावइ सो पडिक्कमणं ।।९१।। मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रं त्यक्त्वा निरवशेषेण । सम्यक्त्वज्ञानचरणं यो भावयति स प्रतिक्रमणम् ।।९१।। अत्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां निरवशेषस्वीकारेण मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणां निरवशेषत्यागेन च परममुमुक्षोर्निश्चयप्रतिक्रमणं च भवति इत्युक्तम् । भगवदर्हत्परमेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभासमार्गश्रद्धानं मिथ्यादर्शनं, तत्रैवावस्तुनि वस्तुबुद्धिर्मिथ्याज्ञानं, तन्मार्गाचरणं मिथ्याचारित्रं च, एतत्रितयमपि निरवशेषं त्यक्त्वा, अथवा स्वात्मश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपविमुखत्वमेवमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मकरत्नत्रयम्, एतदपि त्यक्त्वा । त्रिकालनिरावरणनित्यानंदैकलक्षणनिरंजननिजपरमपारिणामिकभावात्मककारणपरमात्मा ह्यात्मा, तत्स्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणस्वरूपं हि निश्चयरत्नत्रयम्, एवं भगवत्परपालन भी किया है; किन्तु ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा की बात कभी नहीं सुनी और तदनुसार आचरण भी कभी नहीं हआ। प्रत्येक आत्मार्थी भाई-बहिन को उक्त तथ्य की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए ।।१२१।। अब इस गाथा में कहते हैं कि रत्नत्रयरूप से परिणमित ज्ञानी जीव स्वयं ही प्रतिक्रमण है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( हरिगीत ) ज्ञानदर्शनचरण मिथ्या पर्णतः परित्याग कर। रतनत्रय भावे सदा वह स्वयं ही है प्रतिक्रमण ||९१|| मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को पूर्णतः छोड़कर जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को भाता है, वह जीव स्वयं प्रतिक्रमण ही है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “यहाँ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को सम्पूर्णतः स्वीकार करने एवं मिथ्यादर्शन-ज्ञानचारित्र का संपूर्णत: त्याग करने से परममुमुक्षु को निश्चयप्रतिक्रमण होता है ह ऐसा कहा है। भगवान अरिहंत परमेश्वर के मार्ग से प्रतिकूल मार्गाभास में मार्ग का श्रद्धान मिथ्यादर्शन है, उसी में कही गई अवस्तु में वस्तुबुद्धि मिथ्याज्ञान है और उस मार्ग का आचरण मिथ्याचारित्र है। इन तीनों को सम्पूर्णत: छोड़कर अथवा निजात्मा के श्रद्धान, ज्ञान एवं अनुष्ठान के रूप से विमुखता ही मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक मिथ्या रत्नत्रय है; इसे भी पूर्णत: छोड़कर; त्रिकाल निरावरण, नित्यानन्द लक्षणवाला, निरंजन, निज परमपारिणामिकभावस्वरूप कारण परमात्मारूप आत्मा के स्वरूप के श्रद्धान-ज्ञान-आचरण का रूप ही वस्तुतः
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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