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________________ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार परिणामास्सामान्यप्रत्ययाः, तेषां विकल्पास्त्रयोदश भवन्ति 'मिच्छादिट्ठी आदी जाव सजोगिस्स चरमंतं' इति वचनात्, मिथ्यादृष्टिगुणस्थानादिसयोगिगुणस्थानचरमसमयपर्यंतस्थिता इत्यर्थ: । अनासन्नभव्यजीवेन निरंजननिजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानविकलेन पूर्वं सुचिरं भाविता: खलु सामान्यप्रत्ययाः, तेन स्वरूपविकलेन बहिरात्मजीवेनानासादितपरमनैष्कर्म्यचरित्रेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि न भावितानि भवन्तीति । अस्य मिथ्यादृष्टेर्विपरीतगुणनिचयसंपन्नोऽत्यासन्नभव्यजीवः । अस्य सम्यग्ज्ञानभावना कथमिति चेत् ह्न तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभि: ह्न (अनुष्टुभ् ) भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविताः । भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ।। ४३ ।। १ २१३ उनके तेरह भेद हैं; क्योंकि 'मिच्छादिट्ठी आदि जाव सजोगिस्स चरमंते' ह्र ऐसा शास्त्रा वचन है और इसका अर्थ ऐसा है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय तक ह्न कुल मिलाकर तेरह विशेष प्रत्यय हैं । निरंजन निज परमात्मतत्त्व के श्रद्धान रहित दूरभव्य जीव ने सामान्य प्रत्ययों को सुचिरकाल तक भाया है; किन्तु परमनैष्कर्मचारित्र से रहित उक्त स्वरूपशून्य बहिरात्मा ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को नहीं भाया। इस मिथ्यादृष्टि जीव के विपरीत गुणसमुदाय वाला अति आसन्नभव्य जीव होता है ।" उक्त गाथा में मात्र यही कहा गया है कि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ह्न सामान्यरूप से उक्त चार प्रत्यय ही बंध के कारण हैं, आस्रवभाव हैं। ये भाव पहले गुणस्थान से लेकर, तेरहवें गुणस्थान तक पाये जाते हैं । यही कारण है कि आरंभ के तेरह गुणस्थानों को विशेष प्रत्यय कहा गया है । दूरभव्य जीवों ने अनादिकाल से उक्त सामान्य- विशेष प्रत्ययों अर्थात् आस्रवभावों की ही भावना भायी है; सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मुक्तिमार्ग की भावना ही नहीं भायी। इसके विपरीत जीव यानि इन सम्यग्दर्शनादि की भावना भानेवाला जीव आसन्नभव्य होता है ।। ९०॥ 'इस अतिनिकटभव्य जीव को सम्यग्ज्ञान की भावना कैसी होती है ?' इसप्रकार के प्रश्न के उत्तर में टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव, 'तथा चोक्तं श्री गुणभद्रस्वामिभि: ह्न तथा गुणभद्रस्वामी ने भी कहा है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है १. आत्मानुशासन, छन्द २३८
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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