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________________ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार २०९ मोत्तू अट्टरुद्द झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा । सो पडिकमणं उच्चइ जिणवरणिद्दिट्ठसुत्तेसु ।।८९।। मुक्त्वार्तरौद्रं ध्यानं यो ध्यायति धर्मशुक्लं वा । स प्रतिक्रमणमुच्यते जिनवरनिर्दिष्टसूत्रेषु ।।८९।। ध्यानविकल्पस्वरूपाख्यानमेतत् । स्वदेशत्यागात् द्रव्यनाशात् मित्रजनविदेशगमनात् कमनीयकामिनीवियोगात् अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्तध्यानम्, चौरजारशात्रवजनवधबंधननिबद्धमहद्द्द्वेषजनितरौद्रध्यानं च, एतद्वितयम् अपरिमितस्वर्गापवर्गसुखप्रतिपक्षं संसारदुःखमूलत्वान्निरवशेषेण त्यक्त्वा, स्वर्गापवर्गनि:सीमसुखमूलस्वात्माश्रितनिश्चयपरमधर्मध्यानम्, ध्यानध्येयविविधविकल्पविरहितान्तर्मुखाकारसकलकरणग्रामातीतनिर्भेदपरमसहज परम गुप्ति को शुद्धात्मा की भावना सहित उत्कृष्टरूप से भजो; क्योंकि त्रिगुप्तिधारी ऐसे मुनिराजों का चारित्र निर्मल होता है। इस कलश में मात्र यही कहा गया है कि हे आसन्नभव्य मुनिजनो ! मन-वचन-काय के माध्यम से व्यक्त होनेवाली विकृतियों को छोड़कर सम्यग्ज्ञानमयी सहज परम गुप्त को शुद्धात्मा की भावना में एकाग्र होकर उत्कृष्टरूप से भजो; क्योंकि तीन गुप्तियों के धारी संतों का चरित्र अत्यंत निर्मल होता है। इसलिए वे स्वयं प्रतिक्रमण हैं, प्रतिक्रमणमय हैं ॥ ११८ ॥ अब इस गाथा में यह कहते हैं कि धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही प्रतिक्रमण है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) त आर्त एवं रौद्र ध्यावे धरम एवं शुकल को । परमार्थ से वह प्रतिक्रमण यह कहा जिनवर सूत्र में ॥ ८९ ॥ जो जीव आर्त और रौद्र ह्न इन दो ध्यानों को छोड़कर धर्म या शुक्ल ह्न ध्यान को ध्याता है; वह जीव जिनवरकथित सूत्रों में प्रतिक्रमण कहा जाता है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यह ध्यान के भेदों के स्वरूप का कथन है । स्वदेश के त्याग से, द्रव्य के नाश से, मित्रजनों के विदेश जाने से एवं कमनीय कामिनी के वियोग से इष्टवियोगज और अनिष्टसंयोगों से उत्पन्न होनेवाला अनिष्टसंयोगज नामक आर्तध्यान तथा चोर-जार, शत्रुजनों के बधबंधन संबंधी महाद्वेष से उत्पन्न होनेवाला रौद्रध्यान ह्न ये आर्त और रौद्र ह्न दोनों ध्यान स्वर्ग और मोक्ष के अपरिमित सुख से प्रतिपक्ष संसार दुःख के मूल कारण होने के कारण, उन दोनों ध्यानों को पूर्णत: छोड़कर; स्वर्ग और मोक्ष के असीम सुख के मूल ह्न ऐसे जो स्वात्माश्रित निश्चय परमधर्मध्यान तथा ध्यान और ध्येय के विकल्पों से रहित, अन्तर्मुखाकार,
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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