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________________ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार २०७ (पृथ्वी ) कषायकलिरंजितं त्यजतु चित्तमुच्चैर्भवान् भवभ्रमणकारणं स्मरशराग्निदग्धं मुहुः । स्वभावनियतं सुखं विधिवशादनासादितं भजत्वमलिनं यते प्रबलसंसृतेर्भीतितः ।।११७।। चत्ता अगुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८८।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (कुण्डलिया ) अरे कषायों से रंगा भव का हेतु अजोड़। कामबाण की आगसे दग्ध चित्त को छोड़। दग्ध चित्त को छोड़ भाग्यवश जो न प्राप्त है। ऐसा सुख जो निज आतम में सदा व्याप्त है। निजस्वभाव में नियत आत्मरस माँहि पगा है। उसे भजो जो नाँहि कषायों माँहि रंगा है।।११७।। भवभ्रमण के कारण, कामबाण की अग्नि से दग्ध एवं कायक्लेश से रंगे हुए चित्त को हे यतिजनो! तुम पूर्णतः छोड़ दो और भाग्यवश अप्राप्त, निर्मल स्वभावनियत सुख को तुम संसार के प्रबल डर से भजो। इस कलश में यतिजनों को संबोधित करते हुए कहा गया है कि कामबाण की अग्नि से दग्ध अर्थात् कामवासना में संलिप्त और कायक्लेश से रंजित अर्थात् शारीरिक क्रियाकाण्ड में उलझे हुए स्वयं के चित्त को दूर से ही छोड़ देना चाहिए; क्योंकि इसप्रकार की वृत्ति संसार परिभ्रमण का कारण है। तात्पर्य यह है कि कामवासनारूप अशुभभाव और क्रियाकाण्ड में संलग्न शुभभावरूप अशुद्धभाव सांसारिक बंधन के कारण हैं। इनसे बचना चाहिए। तथा दुर्भाग्यवश जो अबतक अप्राप्त रहा है, ऐसा जो निर्मल स्वभावजन्य सुख है, प्रबल संसार के भय से भयभीत हो, उसे भजना चाहिए, उसे प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।।११७|| अब इस गाथा में यह कहते हैं कि त्रिगप्तिधारी साध ही प्रतिक्रमण हैं; क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू (हरिगीत) तज अगुप्तिभाव जो नित गुप्त गुप्ती में रहें। प्रतिक्रमणमय है इसलिए प्रतिक्रमण कहते हैं उन्हें।।८८||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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