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________________ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार इत्युच्यते, यस्मात् परमसमरसीभावनापरिणत: सहजनिश्चयप्रतिक्रमणमयो भवतीति । ( मालिनी ) निजपरमानन्दैकपीयूषसान्द्रं स्फुरितसहजबोधात्मानमात्मानमात्मा । निजशममयवार्भिर्निर्भरानंदभक्त्या अथ स्नपयतु बहुभिः किं लौकिकालापजालैः ।। ११३ ।। २०१ करता है; वह परमतपोधन ही प्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है; क्योंकि वह परमसमरसी भावनारूप से परिणमित होता हुआ सहज निश्चयप्रतिक्रमणमय है ।" इस गाथा और उसकी टीका में मूल रूप से यही कहा गया है कि परमोपेक्षा संयम को धारण करनेवाले के लिए तो एकमात्र निज शुद्धात्मा की आराधना ही संयम है, सदाचार है; इससे सभी शुभाशुभभाव और शुभाशुभ क्रियायें अनाचार ही हैं, कदाचार ही हैं, हेय ही हैं। इसप्रकार हम देखते हैं कि सहज वैराग्यभावना से सम्पन्न और समरसीभाव से परिणमित सन्त स्वयं निश्चयप्रतिक्रमण हैं, प्रतिक्रमण रूप हैं ।। ८५ ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव दो छन्द लिखते हैं; उनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) रे स्वयं से उत्पन्न परमानन्द के पीयूष से । रे भरा है जो लबालब ज्ञायकस्वभावी आतमा ।। अब उसे शम जल से नहाओ प्रशम भक्तिपूर्वक । सोचो जरा क्या लाभ है इस व्यर्थ के आलाप से ||११३|| हे आत्मन् ! अब अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न हुए परमानन्दरूपी अमृत से भरे हुए स्फुरित सहज ज्ञानस्वरूप आत्मा को निर्भरानन्द भक्ति पूर्वक स्वयं से उत्पन्न समतारूपी जल द्वारा स्नान कराओ; अन्य बहुत से आलापजालों से क्या लाभ है, अन्य लौकिक वचन विकल्पों से क्या लाभ है ? उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि शुभभावपूर्वक शुभ वचनों रूप व्यवहारप्रतिक्रमण से कोई विशेष लाभ होनेवाला नहीं है; इसलिए आत्म-श्रद्धान- ज्ञानपूर्वक आत्मध्यान मग्न होनेरूप परमार्थप्रतिक्रमणरूप ही परिणमन करो। एकमात्र यही करने योग्य कार्य है, इससे ही यह आत्मा परमात्मपद को प्राप्त करेगा ।। ११३।। दूसरे कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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