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________________ नियमसार विगतो राधो यस्य परिणामस्य स विराधनः । यस्मान्निश्चयप्रतिक्रमणमय: स जीवस्तत एव प्रतिक्रमणस्वरूपइत्युच्यते । तथा चोक्तं समयसारे ह्र १९८ संसिद्धिराधसिद्धं साधियमाराधियं च एयट्टं । अवगयराधो जो खलु चेया सो होड़ अवराधो ।। ३९।। उक्तं हि समयसारव्याख्यायां चह्न ( मालिनी ) अनवरतमनंतैर्बध्यते सापराधः स्पृशति निरपराधो बंधनं नैव जातु । नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो भवति निरपराध: साधु शुद्धात्मसेवी ।।४०।। २ जो परिणाम राध अर्थात् आराधना रहित हैं, वे परिणाम ही विराधना हैं । विराधना रहित जीव ही निश्चयप्रतिक्रमणमय है; इसीलिए उसे प्रतिक्रमणस्वरूप कहा है ।" इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में यही कहा गया है कि अभेदरूप से देखने पर प्रतिक्रमणमय होने से प्रतिक्रमण करनेवाला आत्मा ही प्रतिक्रमण है। तात्पर्य यह है कि आत्मा की आराधना ही प्रतिक्रमण है और आत्मा की विराधना ही अप्रतिक्रमण है ॥ ८४॥ 'तथा समयसार में भी कहा है' ह्र ऐसा लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) साधित अधित राध अर संसिद्धि सिद्धि एक है । बस राध से जो रहित है वह आतमा अपराध है ||३९|| संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित ह्न यह सब एकार्थवाची हैं । जो आत्मा अपगतराध अर्थात् राध से रहित है, वह आत्मा अपराध है ।। ३९।। इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि आत्मा की साधना ही राध है और जो आत्मा उक्त साधना से रहित है, वह आत्मा स्वयं अपराध है। तात्पर्य यह है कि आत्मा की साधना से रहित भाव अपराध है और उस अपराध से सहित होने से आत्मा अपराधी है। आत्मा अपराधी है; इसलिए एक प्रकार से आत्मा ही अपराध है ||३९|| १. समयसार, गाथा ३०४ २. समयसार : आत्मख्याति, छन्द १८७
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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