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________________ १९२ नियमसार एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं । तं दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी पवक्खामि ।। ८२ ।। ईदृग्भेदाभ्यासे मध्यस्थो भवति तेन चारित्रम् । तद्दृढीकरणनिमित्तं प्रतिक्रमणादिं प्रवक्ष्यामि ।। ८२ ।। अत्र भेदविज्ञानात् क्रमेण निश्चयचारित्रं भवतीत्युक्तम् । पूर्वोक्तपंचरत्नांचितार्थपरिज्ञानेन पंचमगतिप्राप्तिहेतुभूते जीवकर्मपुद्गलयोर्भेदाभ्यासे सति, तस्मिन्नेव च ये मुमुक्षवः सर्वदा संस्थितास्ते ह्यत एव मध्यस्था: तेन कारणेन तेषां परमसंयमिनां वास्तवं चारित्रं भवति । तस्य इसप्रकार उक्त पंचरत्नों के माध्यम में जिसने सभीप्रकार के विषयों के ग्रहण की चिन्ता को छोड़ा है और अपने द्रव्य-गुण- पर्याय के स्वरूप में चित्त को एकाग्र किया है; वह भव्य जीव निजभाव से भिन्न सम्पूर्ण विभावों को छोड़कर अतिशीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करता है । इसप्रकार इस कलश में निष्कर्ष के रूप में मात्र इतना ही कहा है कि जो आत्मार्थी उक्त पाँच गाथाओं और उनकी टीका में समझाये गये भाव को गहराई से ग्रहण कर, पंचेन्द्रिय विषयों के ग्रहण संबंधी विकल्पों से विरक्त हो, उनकी चिन्ता को छोड़कर अपने आत्मा में उपयोग को स्थिर करता है; उसे ही निजरूप जानता है, मानता है और उसी में जमता - रमता है; वह आत्मार्थी अल्पकाल में ही समस्त विभावभावों से मुक्त हो मुक्ति सुंदरी का वरण करता है ।। १०९ ।। पंचरत्न संबंधी विगत गाथाओं की चर्चा के उपरान्त अब ८२वीं गाथा में परमार्थप्रतिक्रमणादि के बारे में चर्चा करने का संकल्प व्यक्त करते हैं । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) इस भेद के अभ्यास से मध्यस्थ हो चारित्र हो । चारित्र दृढता के लिए प्रतिक्रमण की चर्चा करूँ ॥ ८२ ॥ इसप्रकार का भेदाभ्यास (परपदार्थों से भिन्नता का अभ्यास) होने पर जीव मध्यस्थ होता है और उससे चारित्र होता है। उस चारित्र को दृढ़ करने के लिए अब मैं प्रतिक्रमणादि की चर्चा करूँगा । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “भेदविज्ञान से क्रमश: निश्चयचारित्र होता है ह्न यहाँ ऐसा कहा है। पूर्वोक्त पंचरत्नों से शोभित अर्थपरिज्ञान से होनेवाले पंचमगति की प्राप्ति का हेतुभूत जीव और कर्मपुद्गलों का भेदाभ्यास होने पर उसी में स्थित रहनेवाले मुमुक्षु मध्यस्थ हो जाते हैं । इसी मध्यस्थता के कारण परम संयमियों के वास्तविक चारित्र होता है । उक्त चारित्र में अविचलरूप से
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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