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________________ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार १८९ अत्र शुद्धात्मनः सकलकर्तृत्वाभावं दर्शयति । बह्वारंभपरिग्रहाभावादहं तावन्नारकपर्यायो न भवामि । संसारिणो जीवस्य बह्वारंभपरिग्रहत्वं व्यवहारतो भवति अत एव तस्य नारकायुष्कहेतुभूतनिखिलमोहरागद्वेषा विद्यन्ते, न च मम शुद्धनिश्चयबलेन शुद्धजीवास्तिकायस्य; तिर्यपर्यायप्रायोग्यमायामिश्राशुभाकर्माभावात्सदा तिर्यक्पर्यायकर्तृत्वविहीनोऽहम्; मनुष्यनामकर्मप्रायोग्यद्रव्यभावकर्माभावान्न मे मनुष्यपर्याय: शुद्धनिश्चयतो समस्तीति । निश्चयेन देवनामधेयाधारदेवपर्याययोग्यसुरससुगंधस्वभावात्मकपुद्गलद्रव्यसंबंधाभावान्न मे देवपर्यायः इति । चतुर्दशभेदभिन्नानि मार्गणास्थानानि तथाविधभेदविभिन्नानि जीवस्थानानि गुणस्थानानि वा शुद्धनिश्चयनयत: परमभावस्वभावस्य न विद्यन्ते । मनुष्यतिर्यक्पर्यायकायवय:कृतविकारसमुपजनितबालयौवनस्थविरवृद्धावस्थाद्यने कशविविधभेदाःशुद्धनिश्चयनयाभिप्रायेण न मे सन्ति । सत्तावबोधपरमचैतन्यसुखानुभूतिनिरतविशिष्टात्मतत्त्वग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन मे सकलमोहरागद्वेषा न विद्यन्ते। द्वेष आदि विकारी परिणामों और क्रोधादि कषायोंरूप आत्मा नहीं है। इन सबका करनेवाला, करानेवाला और करने-कराने की अनुमोदना करनेवाला भी आत्मा नहीं है। तात्पर्य यह है कि इनसे त्रिकाली ध्रुव आत्मा का कोई संबंध नहीं है और वह त्रिकाली ध्रुव आत्मा मैं ही हूँ। मेरा अपनापन भी एकमात्र इसी में है। उक्त गाथाओं का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “अब यहाँ शुद्धात्मा को सकल कर्तृत्व का अभाव दिखाते हैं। बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह का अभाव होने के कारण मैं नारकपर्याय रूप नहीं हूँ। संसारी जीवों के बहुत आरंभ और परिग्रह व्यवहार से होता है; इसलिए उसे नरकायु के हेतुभूत सभी प्रकार के मोहराग-द्वेष होते हैं, परन्तु वे मुझे नहीं हैं; क्योंकि शुद्धनिश्चयनय के बल से अर्थात् शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा शुद्धजीवास्तिकाय में वे नहीं होते। तिर्यंचपर्याय के योग्य मायामिश्रित अशभकर्म का अभाव होने से मैं तिर्यंचपर्याय के कर्तत्व से रहित हैं। मनुष्यनामकर्म के योग्य द्रव्यकर्म और भावकर्मों का अभाव होने से मुझे शुद्धनिश्चयनय से मनुष्यपर्याय नहीं है। 'देव' इस नामवाली देवपर्याय के योग्य सुरससुगंधस्वभाववाले पुद्गलद्रव्य का अभाव होने से निश्चय से मुझे देवपर्याय नहीं है। चौदह-चौदह भेदवाले मार्गणास्थान, जीवस्थान और गुणस्थान शुद्धनिश्चयनय से परमभाव स्वभाववाले आत्मा को (मुझे) नहीं है। मनुष्य और तिर्यंचपर्याय की काया के वयकृत विकार से उत्पन्न होनेवाले बाल, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध आदि अवस्थारूप उनके स्थूल, कृश आदि अनेक प्रकार के भेद शुद्धनिश्चयनय के अभिप्राय से मेरे नहीं हैं। सत्ता, अवबोध, परमचैतन्य और सुख की अनुभूति में लीन ह्न ऐसे विशिष्ट आत्मतत्त्व को ग्रहण करनेवाले शुद्धद्रव्यार्थिकनय के बल से मुझे सभीप्रकार के मोह-राग-द्वेष नहीं हैं।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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