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________________ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार १८७ अथ पंचरत्नावतारः। णाहणारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।।७७।। णाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।।७८।। णाहं बालो बुड्डो ण चेव तरुणो ण कारणं तेसिं । कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।।७९।। णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।।८०।। अवश्य रहे होंगे, जिन्हें पद्मप्रभमलधारिदेव जैसे अध्यात्मरसिया मुनिराज नियमसार की टीका जैसे ग्रंथ में स्मरण करें और श्रद्धापूर्वक उन्हें नमस्कार करें।।१०८।। उक्त गाथाओं की उत्थानिका लिखते हुए पद्मप्रभमलधारिदेव विगत और आगत ह दोनों अधिकारों की संधि भी बताते हैं। कहते हैं कि विगत अधिकार में निरूपित सम्पूर्ण व्यवहारचारित्र और उसके फल की प्राप्ति से प्रतिपक्ष जो शुद्धनिश्चयपरमचारित्र है, उसका प्रतिपादन करनेवाले परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार की चर्चा आरंभ करते हैं। तात्पर्य यह है कि विगत व्यवहारचारित्राधिकार में मुख्यरूप से पुण्यबंध के कारणरूप व्यवहारचारित्र का स्वरूप बताया गया है। अब इस अधिकार में सर्वप्रकार के पुण्य-पाप के बंध से मुक्त होने का कारणभूत निश्चयचारित्र का निरूपण करेंगे। सबसे पहले पंचरत्न का स्वरूप कहते हैं। इसप्रकार अब यहाँ पाँच रत्नों का अवतरण होता है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) मैं नहीं नारक देव मानव और तिर्यग मैं नहीं। कर्ता कराता और मैं कर्तानमंता भी नहीं।।७७|| मार्गणास्थान जीवस्थान गुणथानक नहीं। कर्ता कराता और मैं कर्तानमंता भी नहीं।७८|| बालक तरुण बूढा नहीं इन सभी का कारण नहीं। कर्ता कराता और मैं कर्तानमंता भी नहीं||७९।। मैं मोह राग द्वेष न इन सभी का कारण नहीं। कर्ता कराता और मैं कर्तानमंता भी नहीं।।८०||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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