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________________ व्यवहारचारित्राधिकार इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ व्यवहारचारित्राधिकारः चतुर्थः श्रुतस्कन्धः । १८५ तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सहित निश्चय सम्यक्चारित्र धारकों को मुक्ति की प्राप्ति होती है, मुक्ति में प्राप्त होनेवाले अनंत अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है ।। १०७ ।। व्यवहारचारित्राधिकार की समाप्ति के अवसर पर टीकाकार जो पंक्ति लिखते हैं; उसका भाव इसप्रकार है ह्र "इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार ( आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में व्यवहारचारित्राधिकार नामक चतुर्थ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।” यहाँ नियमसार एवं उसकी तात्पर्यवृत्ति टीका के साथ-साथ डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका में व्यवहारचारित्राधिकार नामक चतुर्थ श्रुतस्कन्ध भी समाप्त होता है । ... वस्तु तो पर से निरपेक्ष ही है। उसे अपने गुण-धर्मों को धारण करने में किसी पर की अपेक्षा रंचमात्र भी नहीं है । उसमें नित्यता- अनित्यता, एकता - अनेकता आदि सब धर्म एक साथ विद्यमान रहते हैं । द्रव्यदृष्टि से वस्तु जिस समय नित्य है, पर्याय दृष्टि से उसी समय अनित्य भी है, वाणी से जब नित्यता का कथन किया जायेगा, तब अनित्यता का सम्भव नहीं है। अत: जब हम वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन करेंगे, तब श्रोता यह समझ सकता है कि वस्तु नित्य ही है, अनित्य नहीं । अतः हम 'किसी अपेक्षा नित्य भी हैं, ' ऐसा कहते हैं । ऐसा कहने से उसके ज्ञान में यह बात सहज आ जावेगी कि किसी अपेक्षा अनित्य भी है। भले ही वाणी के असामर्थ्य के कारण वह बात कही नहीं जा रही है। अतः वाणी में स्याद् - पद का प्रयोग आवश्यक है, स्याद् - पद अविवक्षित धर्मों को गौण करता है, पर अभाव नहीं । उसके प्रयोग बिना अभाव का भ्रम उत्पन्न हो सकता है। ह्न तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ- १४४
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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