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________________ व्यवहारचारित्राधिकार रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा । णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति ।।७४ ।। १७९ रत्नत्रयसंयुक्ताः जिनकथितपदार्थदेशकाः शूराः । नि:कांक्षभावसहिता: उपाध्याया ईदृशा भवन्ति । ।७४।। अध्यापकाभिधानपरमगुरुस्वरूपाख्यानमेतद् । अविचलिताखंडाद्वैतपरमचिद्रूप श्रद्धान सभी इन्द्रियों के आलंबन से रहित; अनाकुल; स्वहित में निरत; शुद्ध; मुक्ति के कारण; शम, दम और यम के आवास; मित्रता, दया और दम के मंदिर; श्री चन्द्रकीर्ति मुनि अनुपम मन वंदनीय है । इस छन्द में टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव श्रीचन्द्रकीर्ति मुनिराज को वंदनीय बता रहे हैं, उनकी वंदना कर रहे हैं। ये चन्द्रकीर्ति मुनिराज कौन हैं ? यद्यपि इस संदर्भ में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है; तथापि यह अनुमान तो किया ही जा सकता है कि वे पद्मप्रभमलधारिदेव के गुरु रहे होंगे या फिर उस समय के विशेष प्रभावशाली सन्त होंगे । जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश में एक चन्द्रकीर्ति मुनिराज का उल्लेख है; जिन्हें मलधारिदेव के शिष्य और दिवाकरनंदि का गुरु बताया गया है। हो सकता है कि उक्त मलधारिदेव टीकाकार मलधारिदेव से भिन्न हों। जो भी हो, पर यहाँ उन्हें जितेन्द्रिय, शमी, दमी, यमी और सभी प्राणियों से मैत्रीभाव रखनेवाले दयालु संत बताया गया है ।। १०४ ।। विगत गाथा में आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप बताया गया है और अब इस गाथा में उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप बताया जा रहा है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) रतन त्रय संयुक्त अर आकांक्षाओं से रहित । तत्त्वार्थ के उपदेश में जो शूर वे पाठक मुनी ||७४|| रत्नत्रय से संयुक्त, जिनेन्द्रकथित पदार्थों को समझाने में शूरवीर और निकांक्षभावनावाले मुनिराज उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यह अध्यापक अर्थात् उपाध्याय नामक परमगुरु के स्वरूप का कथन है। अविचलित; १. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश भाग-२, पृष्ठ २७५
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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