SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ नियमसार तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः ह्र (मालिनी) यमनियमनितान्त: शांतबाह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकंपी। विहितहितमिताशी क्लेशजालं समूलं दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ।।३२॥ तथा हित (शालिनी) भुक्त्वा भक्तं भक्तहस्ताग्रदत्तं ध्यात्वात्मानं पूर्णबोधप्रकाशम् । तप्त्वा चैवं सत्तपः सत्तपस्वी प्राप्नोतीद्धां मुक्तिवारांगनां सः ।।८६।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ‘तथा गुणभद्रस्वामी ने भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) जो सभी के प्रति दया समता समाधि के भाव से। नित्य पाले यम-नियम अरशान्त अन्तर बाह्य से || शास्त्र के अनुसार हित-मित असन निद्रा नाश से। वे मुनीजन ही जला देते क्लेश के जंजाल को||३२|| जिन्होंने अध्यात्म का सार निश्चित किया है, समझा है; जो अत्यन्त यम-नियम सहित हैं; जिनका आत्मा भीतर-बाहर से शान्त हुआ है; जिन्हें समाधि प्रगट हुई है, परिणमित हुई है; जिनके हृदय में सभी जीवों के प्रति अनुकंपा है; जो शास्त्रानुसार हितकारी सीमित भोजन करनेवाले हैं; जिन्होंने निद्रा का नाश किया है। वे मुनिराज क्लेशजाल को समूल भस्म कर देते हैं। ___ इसप्रकार हम देखते हैं कि इस छन्द में भी समितियों के धारी तपस्वी मुनिराजों के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है ।।३२।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथा हि' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है तू (हरिगीत) भक्त के हस्तार से परिशुद्ध भोजन प्राप्त कर परिपूर्ण ज्ञान प्रकाशमय निज आत्मा का ध्यान धर|| इसतरह तप तप तपस्वी हैं निरन्तर निज में मगन | मक्तिरूपी अंगना को प्राप्त करते संतजन ||८|| १. आत्मानुशासन, छन्द २२७
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy