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________________ १४० नियमसार तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिःह्न (शिखरिणी) अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ। ततस्तत्सिद्ध्यर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ।।२७।। तथा हित (मालिनी) त्रसहतिपरिणामध्वांतविध्वंसहेतुः सकलभुवनजीवग्रामसौख्यप्रदो यः। स जयति जिनधर्मः स्थावरैकेन्द्रियाणां । विविधवधविदूरश्चारुशर्माब्धिपूरः ।।७६।। या न हो, प्रयत्नरूप परिणाम के बिना सावध का परिहार नहीं होता। यही कारण है कि प्रयत्नपरायण व्यक्ति को ही हिंसा परिणति का अभाव होने से अहिंसाव्रत होता है।५६|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव 'तथा आचार्य समन्तभद्रदेव ने भी कहा है' ह्न यह कहकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) अहिंसा परमब्रह्म है सारा जगत यह जानता। अर गृहस्थ आश्रम में सदा आरंभ होता नियम से। बस इसलिए नमिदेव ने दो विध परिग्रह त्यागकर| छोड़ विकृत वेश सब निर्ग्रन्थपन धारण किया ||२७|| सारा जगत यह जानता है कि अहिंसा परमब्रह्म है। जिस आश्रम (गहस्थ) की विधि में लेश भी आरंभ है; उस गृहस्थाश्रम में अहिंसा धर्म की पूर्णतः सिद्धि नहीं हो सकती। यही कारण है कि हे नमिनाथप्रभु ! अत्यन्त करुणावंत आपने द्रव्य और भाव ह्न दोनों प्रकार के परिग्रहों को तथा विकृत वेश को त्यागकर एवं परिग्रह से विरत होकर निर्ग्रन्थपना अंगीकार किया है। इस छन्द में अहिंसा को परमब्रह्म कहा है और यह स्पष्ट किया है कि गृहस्थ अवस्था में इसका परिपूर्ण पालन संभव नहीं है। यही कारण है कि तीर्थंकरदेव गृहस्थावस्था त्यागकर मुनिधर्म अंगीकार करते हैं ।।२७।। १. बृहत् स्वयंभूस्तोत्र : ११९वाँ छन्द, नमिनाथ भगवान की स्तुति
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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