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________________ शुद्धभाव अधिकार तथाहि ह्न १३३ ( शालिनी ) न ह्यस्माकं शुद्धजीवास्तिकायादन्ये सर्वे पुद्गलद्रव्यभावाः । इत्थं व्यक्तं वक्ति यस्तत्त्ववेदी सिद्धिं सोऽयं याति तामत्यपूर्वाम् ।।७४।। विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं । संसयविमोहविब्भमविविज्जियं होदि सण्णाणं ।। ५१ ।। चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मतं । अधिगमभावो णणं हेयोवादेयतच्चाणं ।। ५२ ।। सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा । अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी ।। ५३ ।। सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं । ववहारणिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि । । ५४ ।। ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्य होदि तवचरणं । णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो ।। ५५ ।। जिनका चित्त और चरित्र उदार हैं ह्र ऐसे मोक्षार्थी के द्वारा इस सिद्धान्त का सेवन किया जाना चाहिए कि मैं तो सदा एक शुद्ध चैतन्यमय परमज्योति हूँ और मुझसे पृथक् लक्षणवाले विविधप्रकार के जो भाव प्रगट होते हैं; वे मैं नहीं हूँ; क्योंकि वे सभी मेरे लिए परद्रव्य हैं । उक्त कलश में यही बात कही गयी है कि जो मोक्षार्थी हैं, मुमुक्षु हैं, जिन्हें दु:खों से मुक्त होने की आकांक्षा है; उन्हें इस महान सिद्धान्त पर अपनी श्रद्धा दृढ़ करना चाहिए और इसी के 'अनुसार आचरण भी करना चाहिए। इसप्रकार हम देखते हैं कि मोह-राग-द्वेष भावों से भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करना ही धर्म है और तदनुसार आचरण ही धर्माचरण है ||२५|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद स्वयं लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( सोरठा ) वे न हमारे भाव, शुद्धात अन्य जो । ऐसे जिनके भाव, सिद्धि अपूरव वे लहें ॥ ७४ ॥ शुद्धजीवास्तिकाय से भिन्न अन्य जो पुद्गलद्रव्य के भाव हैं; वस्तुत: वे सभी हमारे नहीं हैं, जो तत्त्ववेदी स्पष्टरूप से इसप्रकार कहते हैं; वे सभी अति अपूर्व सिद्धि को प्राप्त होते हैं।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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