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________________ शुद्धभाव अधिकार तथा हि ह्र (स्वागता ) शुद्धनिश्चययेन विमुक्तौ संसृतावपि च नास्ति विशेषः । एवमेव खलु तत्त्वविचारे शुद्धतत्त्वरसिकाः प्रवदन्ति ।।७३।। पुव्वुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं । सगदव्वमुवादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा ।। ५० ।। पूर्वोक्तसकलभावाः परद्रव्यं परस्वभावा इति हेयाः । स्वकद्रव्यमुपादेयं अन्तस्तत्त्वं भवेदात्मा ।। ५० ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (दोहा) संसारी अर सिद्ध में अन्तर नहीं है रंच । शुद्धतत्त्व के रसिकजन बतलाते यह मर्म ||७३ || १३१ शुद्धनिश्चयनय से मुक्ति और संसार में कोई अन्तर नहीं है। शुद्धतत्त्व के रसिकजन शुद्धतत्त्व की मीमांसा करते हुए ऐसा ही कहते हैं । उक्त छन्द में यही कहा गया है कि शुद्धतत्त्व के रसिकजनों की दृष्टि शुद्धनयप्रधान होती है । अतः वे तो शुद्धतत्त्व की प्राप्ति की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि संसारी और सिद्धों में कोई अन्तर नहीं है ।। ७३ ।। विगत गाथा में कहा गया है कि पूर्वोक्त वर्णादि सभी भाव यद्यपि व्यवहारनय से जीव के कहे गये हैं; तथापि शुद्धनय से संसार में रहनेवाले सभी जीव सिद्धों के समान स्वभाववाले ही हैं और अब इस गाथा में यह कहा जा रहा है कि पूर्वोक्त सभी भाव परस्वभाव होने से परद्रव्य हैं; इसलिए हेय हैं और अन्तः तत्त्वरूप स्वद्रव्य उपादेय हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( हरिगीत ) हैं ये परभाव सब ही क्योंकि ये परद्रव्य हैं। आदेय अन्तस्तत्त्व आतम क्योंकि वह स्वद्रव्य है ॥५०॥ पूर्वोक्त सभी भाव परस्वभाव हैं, परद्रव्य हैं; इसलिए हेय हैं तथा अन्तः तत्त्वरूप आत्मा स्वद्रव्य है; अत: उपादेय है।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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