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________________ १२५ शुद्धभाव अधिकार तथा हि ह्र (मालिनी) असति च सति बन्धे शुद्धजीवस्य रूपाद् रहितमखिलमूर्त्तद्रव्यजालं विचित्रम् । इति जिनपतिवाक्यं वक्ति शुद्धं बुधानां भुवनविदितमेतद्भव्य जानीहि नित्यम् ।।७।। जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होति । जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया जेण ।।४७।। यादृशा: सिद्धात्मानो भवमालीना जीवास्तादृश भवन्ति। जरामरणजन्ममुक्ता अष्टगुणालंकृता येन ।।४७।। इसप्रकार एकत्वसप्तति के इस छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यही कहा गया है कि सभी पदार्थ अपने गुण-पर्यायों से अभिन्न और परद्रव्य और उनके गुण-पर्यायों से पूर्णत: भिन्न हैं। यह तो ठीक; किन्तु कर्मोदय के निमित्तपूर्वक होनेवाले मोह-राग-द्वेषादि भावों से भी यह आत्मा भिन्न ही है। अत: आत्मार्थी भाई-बहिनों का यह परम कर्तव्य है कि वे परपदार्थों में संलग्न उपयोग को वहाँ से हटाकर निज भगवान आत्मा में लगावें||२३|| इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव एक छंद स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न (रोला) अरे बंध हो अथवा न हो शुद्धजीव तो। सदा भिन्न ही विविध मूर्त द्रव्यों से जानो।। बुधपुरुषों से कहे हुए जिनदेव वचन इस। परमसत्य को भव्य आतमा तुम पहिचानो ||७०|| बंध हो या न हो अर्थात् चाहे बंधावस्था हो, चाहे मोक्षावस्था हो ह्न दोनों ही अवस्थाओं में अनेकप्रकार के मूर्त पदार्थों के समूह शुद्धजीव के रूप से अत्यन्त भिन्न हैं। बुधपुरुषों से कहा हुआ जिनदेव का ऐसा शुद्धवचन है। जगप्रसिद्ध इस परमसत्य को हे भव्य! तू सदा जान। इस छन्द में मात्र यही कहा गया है कि हे भव्यजीवो ! जिनदेव द्वारा कहे गये इस जगप्रसिद्ध परमसत्य को जानो, पहिचानो कि हर हालत में यह शुद्ध आत्मा अनेकप्रकार के समस्त परद्रव्यों से भिन्न है। ऐसे ज्ञान-श्रद्धान से, आचरण से अनंत अतीन्द्रिय आनंद की प्राप्ति होती है ।।७०।। विगत गाथाओं में यह स्पष्ट करने के उपरान्त कि आत्मा में वर्णादि भाव नहीं हैं, वह अरस-अरूपादि भावों से संयुक्त चेतनागुणवाला है; अब इस गाथा में यह बताते हैं कि शुद्धद्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से संसारी और सिद्ध जीवों में कुछ भी अन्तर नहीं है।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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