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________________ शुद्धभाव अधिकार तथा हि ह्र ( मंदाक्रांता ) ज्ञानज्योति: प्रहतदुरितध्वान्तसंघातकात्मा नित्यानन्दाद्यतुलमहिमा सर्वदा मूर्तिमुक्तः । स्वस्मिन्नुच्चैरविचलतया जातशीलस्य मूलं यस्तं वन्दे भवभयहरं मोक्षलक्ष्मीशमीशम् ।। ६९ ।। वण्णरसगंधफासा थीपुंसणउंसयादिपज्जाया । संठाणा संहणणा सव्वे जीवस्स णो संति ।। ४५ ।। अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।। ४६ ।। १२१ इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव स्वयं एक छंद लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( मनहरण कवित्त ) ज्ञानज्योति द्वारा पापरूपी अंधकार का नाशक ध्रुव नित्य आनन्द का है धारक जो ॥ अमूरतिक आतमा अत्यन्त अविचल | स्वयं में ही उत्तम सुशील का है कारक जो ॥ भवभयहरण पति मोक्षलक्ष्मी का अति । ऐश्वर्यवान नित्य आतम विलासी जो ।। करता हूँ वंदना मैं आत्मदेव की सदा । अलख अखण्ड पिण्ड चण्ड अविनाशी जो ।। ६९ ।। ज्ञानज्योति द्वारा पापरूपी अंधकार समूह का नाशक, नित्यानन्दादि अतुल महिमा का सदा धारक जो अमूर्तिक आत्मा स्वयं में अत्यन्त अविचलपने से उत्तमशील का मूल है; उस भवभय को हरनेवाले मोक्ष लक्ष्मी के ऐश्वर्यवान स्वामी निजकारणपरमात्मा को मैं वंदन करता हूँ। मध्य मंगलाचरण के रूप में समागत इस छन्द में त्रिकाली ध्रुव कारणपरमात्मारूप निज भगवान आत्मा को नमस्कार किया गया है; क्योंकि अज्ञानरूप अंधकार का नाश अपने आत्मा में अपनापन लाने, उसी को निजरूप जानने और उसी में समा जाने से ही होता है ।। ६९ ।। विगत गाथा में जिस शुद्धात्मा को निर्ग्रन्थादिरूप बताया गया था; अब इन गाथाओं में शुद्धात्मा को वर्णादि से रहित अरस- अरूपादिरूप बताते हैं । उसी
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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