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________________ १९६ ( मालिनी ) अनिशमतुलबोधाधीनमात्मानमात्मा सहजगुणमणीनामाकरं निजपरिणतिशर्माम्भोधिमज्जन्तमेनं तत्त्वसारम् । भजतु भवविमुक्त्यै भव्यताप्रेरितो यः ।।६४।। की गयी है; क्योंकि अनंतदुखों से रक्षा तो एकमात्र समयसाररूप आत्मा के आश्रय से ही होती है ।। ६२ ।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (रोला ) बुधजन जिनको कहें कल्पनामात्र रम्य है सुख-दुख से रहित नित्य जो निर्विकार है । विविध विकल्प विहीन पद्मप्रभ मुनिवर मन में जो संस्थित वह परमतत्त्व जयवंत रहे नित ॥ ६३ ॥ वह परमतत्त्व जयवंत वर्तता है; जो पद्मप्रभ मुनिराज के हृदयकमल में स्थित है, निर्विकार है, जिसने विविध विकल्पों का हनन कर दिया है और जो भव-भव के उन सुख-दुखों से मुक्त है; जिन सुख - दुखों को बुधपुरुषों ने कल्पनामात्र रम्य कहा है। इस छन्द में उस समयसार (शुद्धात्मा) रूप परमतत्त्व के जयवंत वर्तने की बात कही गई है, भावना व्यक्त की गई है; जो विकल्पातीत है, सांसारिक सुख-दुःखों से रहित है और मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव के हृदय में विराजमान है; उनकी श्रद्धा का श्रद्धेय है और उनके ध्यान का एकमात्र ध्येय है ।। ६३ ।। तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र नियमसार (रोला ) सर्वतत्त्व में सार मगन जो निज परिणति में सुखसागर में सदा खान जो गुण मणियों की । उस आतम को भजो निरन्तर भव्यभाव से भव्यभावना से प्रेरित हो भव्य आत्मन् ||६४|| भव्यता से प्रेरित हे निकट भव्यात्माओं ! भव से मुक्त होने के लिए निरन्तर उस आत्मा को भजो; जो अनुपम ज्ञान के आधीन है, सहज गुणमणियों की खान है, सर्वतत्त्वों में सारभूत तत्त्व है और जो निज परिणति के सुखसागर में मग्न है ।। ६४ ।। इस छन्द में भी भव्यात्माओं को संसार सुखों से मुक्त होने के लिए अनुपम, ज्ञानाधीन,
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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