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________________ १०२ नियमसार तथा हित ( अनुष्टुभ् ) नित्यशुद्धचिदानन्दसंपदामाकरं परम् । विपदामिदमेवोच्चैरपदं चेतये पदम् ।।५६।। (वसंततिलका) यः सर्वकर्मविषभूरुहसंभवानि मुक्त्वा फलानि निजरूपविलक्षणानि । भुंक्तेऽधुना सहजचिन्मयमात्मतत्त्वं प्राप्नोति मुक्तिमचिरादिति संशयः कः ।।५७।। इसके उपरान्त एक अनुष्टुप और एक वसंततिलका इसप्रकार दो छन्द मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव स्वयं लिखते हैं, जिनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (दोहा) चिदानन्द निधियाँ बसें मुझमें नेकानेक। विपदाओं का अपद मैं नित्य निरंजन एक||५६|| जो नित्यशुद्धचिदानन्दरूप सम्पदा का आकर (भंडार-खान) है तथा जो विपत्तियों का अत्यन्त अपद है अर्थात् जिसमें विपत्तियों का अभाव है, उसी आत्मपद का मैं अनुभव करता हूँ। उक्त छन्द में मनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि जिसमें सभी प्रकार की विपत्तियों का अभाव और सभीप्रकार की संपदाओं का सद्भाव है ह्न ऐसे शुद्धचिदानंदस्वरूप आत्मा का मैं नित्य अनुभव करता हूँ। तात्पर्य यह है कि आप भी हमेशा इसी आत्मा का अनुभवकरो ।।५६।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू (वसंततिलका) निज रूप से अति विलक्षण अफल फल जो। तज सर्व कर्म विषवृक्षज विष-फलों को। जो भोगता सहजसुखमय आतमा को। हो मुक्तिलाभ उसको संशय न इसमें ||५७|| निजरूप से विलक्षण, सभीप्रकार के शुभाशुभकर्मरूपी विषवृक्षों से उत्पन्न होनेवाले विषफलों को छोड़कर जो जीव इसी समय, सहज चैतन्यमय आत्मतत्त्व को भोगता है; वह जीव अल्पकाल में मुक्ति को प्राप्त करता है। इसमें क्या संशय है अर्थात् इसमें रंचमात्र भी संशय नहीं है।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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