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________________ १०० नियमसार ठिबंधट्ठाणा यडिट्ठाणा पदेसठाणा वा । णो अणुभागट्टाणा जीवस्स ण उदयठाणा वा ।। ४० ।। न स्थितिबंधस्थानानि प्रकृतिस्थानानि प्रदेशस्थानानि वा । नानुभागस्थानानि जीवस्य नोदयस्थानानि वा ॥ ४० ॥ अत्र प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धोदयस्थाननिचयो जीवस्य न समस्तीत्युक्तम् । नित्यनिरुपरागस्वरूपस्य निरंजननिजपरमात्मनतत्त्वस्य न खलु जघन्यमध्यमोत्कृष्टद्रव्यकर्मस्थितबन्धस्थानानि । ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मणां तत्तद्योग्यपुद्गलद्रव्यस्वाकार: प्रकृतिबंध:, तस्य स्थानानि न भवन्ति । अशुद्धान्तस्तत्त्वकर्मपुद्गलयोः परस्परप्रदेशानुप्रवेशः प्रदेशबन्ध:, अस्य बन्धस्य स्थानानि वा न भवन्ति । शुभाशुभकर्मणां निर्जरासमये सुखदुःखफल 1 यही कारण है कि विषय - कषाय से अत्यन्त विरक्त मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव करुणा से विगलित होकर कह रहे हैं कि हे सुखाभिलाषी भव्यजनों ! तुम ज्ञानी धर्मात्माओं द्वारा अनुभूत उस शुद्धात्मा की भावना क्यों नहीं करते; जो अनंत शाश्वत सुख का सागर है, सदा प्रकाशमान है, अनादि अनंत है, चैतन्यामृत से लबालब है ? इस विषय कषाय की भावना से तुझे क्या मिलनेवाला है ? ।। ५५ ।। विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त कि आत्मा में विभावभाव के स्थान नहीं हैं, मानापमान के स्थान नहीं हैं और हर्षाहर्षभाव के स्थान भी नहीं हैं; अब इस गाथा में यह बताते हैं कि उक्त आत्मा में बंध व उदय के स्थान भी नहीं हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) स्थिति अनुभाग बंध एवं प्रकृति परदेश के । अर उदय के स्थान आतम में नहीं ह्न यह जानिये ||४०|| जीव के न तो स्थितिबंधस्थान है, न प्रकृतिबंधस्थान हैं, न प्रदेशस्थान हैं, न अनुभाग स्थान हैं और न उदयस्थान ही हैं। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध के स्थानों का तथा उदय के स्थानों का समूह जीव के नहीं है ह्न यह कहा गया है। सदा ही जिसका स्वरूप उपराग रहित हैह्र ऐसे निरंजन निज - परमात्मतत्त्व के; द्रव्यकर्म के जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्थान नहीं है । ज्ञानावरणादि अष्टविधकर्मों के, उस-उस कर्म के योग्य पुद्गलद्रव्य का आकार प्रकृतिबंध है; उस प्रकृति बंध के स्थान भी जीव के नहीं है। अशुद्ध आत्मा और कर्मपुद्गल के प्रदेशों का परस्पर प्रवेश प्रदेशबंध है; इस प्रदेशबंध के स्थान भी जीव के नहीं हैं ।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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