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________________ निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व माता-पिता को न हर्ष होता है और न विषाद और उसके विपरीत दत्तक लेने वाला सुखी - दुखी होने लगता है। 14 निष्कर्ष यह है कि ज्ञानी हो जाने पर उसको वीतरागभावों की वृद्धि के प्रति सहज रूप से रुचि हो जाती है एवं ध्रुव ज्ञायक के अतिरिक्त ज्ञेय मात्र के प्रति सहज उपेक्षाबुद्धि वर्तने लगती है। इस अंतरंग परिणति के साथ मन-वचन-काय के परिवर्तन का भी सहज रूप से निमित्तनैमित्तिक सम्बंध होता है। फलतः मन में अनन्तानुबंधी के अभावात्मक भाव वर्तने लगते हैं। जैसे इन्द्रियों के विषयों में गृद्धता का अभाव हो जाने से व्यसनरूप भाव नहीं होते । इसीप्रकार मदिरा सेवन एवं त्रसों घात से उत्पन्न अभक्ष्य पदार्थों के सेवन करने आदि के भावों का भी सहजरूप से अभाव हो जाता है। फलतः बाह्य क्रियाओं में भी ऐसी क्रियाएँ सहजरूप से नहीं होतीं। इतना तो सम्यग्दर्शन के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है। इसी को निश्चय के साथ होने वाला व्यवहार कहा जाता है और इसी का चरणानुयोग में भी कथन है। नाटक समयसार निर्जराद्वार के चौथे छन्द में भी कहा है "ज्ञानकला जिनके घट जागी, ते जगमाहिं सहज वैरागी । ज्ञानी मगन विषयसुखमाहीं, यह विपरीत संभवै नाहीं ॥ " कथनों में तो निम्न कोटि के भावों का अभाव करके उत्कृष्ट कोटि के भावों के करने का वर्णन किया जाता है। लेकिन उत्कृष्ट कोटि तक पहुँचने के भावों की तारतम्यता तो अलग-अलग जीवों की असंख्य प्रकार की होती है, वह वर्णन तो शब्दों के द्वारा सभंव नहीं होता। ऐसे कथनों से भ्रमित होकर कुछ आत्मार्थी ऊपर के गुणस्थानों जैसे भावों एवं क्रियाओं का अविरत सम्यग्दृष्टि के ही होना निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व आवश्यक जानकर अपने भावों को नाप कर तदरूप परिणमन करने में व्यस्त हो जाते हैं। वे भी पर्यायदृष्टि होकर सच्चे मार्ग से च्युत हो जाते हैं। 15 कुछ आत्मार्थी अनन्तानुबंधी के अभाव से होनेवाली कषाय की मंदता के कथन को पढ़कर, लेश्या (कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल) सम्बंधी अशुभ लेश्या के भावों के घटाने को ही अनन्तानुबंधी का अभाव मानकर लेश्या मंद करने में लग जाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि कृष्ण लेश्या तो पंचम गुणस्थान तक भी हो सकती है; भरत चक्रवर्ती का दृष्टान्त है - चक्रवर्ती छह खण्ड जीतता है, छयानवे हजार रानियों के रहते हुए भी भोगों में गृद्धता का अभाव रहता है, युद्ध कर्तृत्वबुद्धि का अभाव रहता है, जो कि अविरति श्रावक को सहज रूप से होना अनिवार्य होता है। कुछ बंधु ऐसे भी होते हैं कि राग सहित पर के प्रति उपयोग जाने के निषेध के कथनों को पढ़कर, पर को जानने का ही निषेध करने लग जाते हैं, जबकि ज्ञान का स्वभाव ही स्व पर प्रकाशक होने से पर जानने का अभाव होना सम्भव ही नहीं होता। तथा ज्ञायक में अपनत्व होने से सहजरूप अनन्तानुबंधी राग के अभाव पूर्वक से परज्ञेयों का ज्ञान होता रहता है। इस अभिप्राय को नहीं समझ कर राग के और ज्ञान के निमित्तों को दूर करने रूप बाह्यक्रिया काण्ड में फंसकर उद्देश्य से च्युत हो जाते हैं। जीवन सफल करने के लिये सत्यार्थ मार्ग प्राप्त हो जाना, सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। मेरे लिए उपरोक्त मार्ग के प्रदाता प्रातः स्मरणीय स्व. पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी हैं। उन्हीं की पावन कृपा से मुझे इस ओर की रुचि जाग्रत हुई और प्रवचनों से एवं उनके द्वारा प्रदान की
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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