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________________ 142 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व के आकर्षणों में अति ढ़ीलापन आकर स्व की ओर का आकर्षण बढ़ जाता है। निर्णय करने का कार्य समाप्त प्रायः सा हो जाता है। रुचि, परिणति एवं पुरुषार्थ तीनों मिलकर आत्मा का साक्षात्कार करने योग्य हो जाते हैं। आत्मा का अनुभव करने में एकाग्रता करने के लिये तो ज्ञान के सामने मात्र अकेला ज्ञायक आत्मा ही रहना चाहिये। लेकिन उसमें तो अनेक प्रकार के भेद (गुणभेद) ज्ञात होते हैं। इसलिये जब तक सभी द्वैत निरस्त होकर, एक ज्ञाता-दृष्टास्वभावी ज्ञायक नहीं रह जावेगा; तब तक एकाग्रता किसमें होगी। अत: रुचि, पुरुषार्थ एवं परिणति की उग्रता के साथ ज्ञान ऐसे भेदों को निम्नप्रकार से निरस्त करने का प्रयास करता है। आत्मार्थी यह निर्णय तो कर चुका है कि आत्मा तो ज्ञानदर्शन स्वभाव में अस्तित्व रूप ज्ञायक तत्त्व है। वह सिद्ध भगवान में प्रगट हो गया। अत: मेरा भी आत्मा तो वह ही है। सत् तो द्रव्य है यथा 'सत् द्रव्यलक्षणं' उसी सत् के तीन अंश हैं यथा 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' अत: एक तो नित्यस्वभावी ध्रुव सत् और दूसरा अनित्यस्वभावी पर्याय सत्। ध्रुव तो सिद्ध स्वभावी त्रिकाली सत् है और पर्याय परिवर्तनशील एक समयवर्ती सत् है, लेकिन अज्ञानी की पर्याय तो स्वभाव से विपरीत परिणमन करती है। फलतः आत्मा की सामर्थ्यो का अनुभव नहीं हो पाता। उसने अनादि से अपने को पर्याय जैसा और जितना ही माना है। इसलिये आचार्यों ने पर्याय से अपनेपने की मान्यता छोड़कर ध्रुव में अपनापन करने की प्रेरणा दी है। पर्यायदृष्टि छुड़ाने के लिये सत् के ही अंश पर्याय को भी पर कहकर द्रव्यदृष्टि कराई है। जिनवाणी का वाक्य है, "द्रव्यदृष्टि वह सम्यग्दृष्टि" इसप्रकार आचार्यश्री ने ध्रुव में अपनापन कराया है। इसके पश्चात् ध्रुव एवं निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व 143 पर्याय को एक अंशी में ही अभेद करने से द्रव्य और पर्याय का भेद भी निरस्त हो जाता है। इसप्रकार ध्रुव और पर्याय का भी द्वैत निरस्त होकर एकाग्रता का विषय एक मात्र ध्रुव ही रह जाता है। सिद्ध भगवान का आत्मा स्वभाव में ही सदैव अस्तिरूप विराजमान है और आत्मा के अनंत गुण उसी ज्ञाता-दृष्टा स्वभावी आत्मतत्त्व का ही अभिनंदन करते हैं अर्थात् अभेद होकर रहते हैं। मेरा आत्मतत्त्व भी ज्ञाता-दृष्टा स्वभावी है। अत: अनन्त गुण मेरे उस स्वभाव का ही अभिनन्दन करने वाले हैं। अत: वे सब ज्ञायक में ही तो अभेद होकर रहते हैं। इसप्रकार ज्ञाता-दृष्टा स्वभावी आत्मा में अपनापन होते ही गुण भी अभेद होकर ज्ञायक में समाविष्ट हो जाते हैं। तात्पर्य यह है गुण भेद भी सहजरूप से निरस्त होकर, सभी प्रकार के द्वैत समाप्त होकर एक ज्ञायक ध्रुव ही एकाग्रता के लिये रह जाता है। उक्त आत्मार्थी को ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय के विभाग संबंधी विकल्पों का तो अस्तित्व ही नहीं रहता; क्योंकि ज्ञान की पर्याय ही तो, स्व एवं परद्रव्यों के ज्ञेयाकारों रूप परिणमी है। अत: वह ज्ञानपर्याय स्वत: ही तो ज्ञान है और ज्ञाता भी वह स्वयं ही है और ज्ञेय भी स्वयं ही है। अत: ज्ञाता भी ज्ञान, ज्ञेय भी ज्ञान और ज्ञान तो ज्ञान है ही, अत: ज्ञाता-ज्ञानज्ञेय के भेदों का भी अस्तित्व नहीं रहता। तथा ज्ञानपर्याय का ज्ञायक के साथ तादात्म्य वर्तता है। अत: ज्ञाता द्रव्य और ज्ञानपर्याय का भेद भी समाप्त होकर, स्वत: ही सभी प्रकार के द्वैत निरस्त हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि एक ज्ञाता-दृष्टा स्वभावी ज्ञायक में अस्तित्व मानने वाले को सभी प्रकार के द्वैतों के निरस्त करने का प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वरन् वे सहजरूप से निरस्त हो जाते हैं। पण्डित बनारसीदासजी ने भी कहा है कि
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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