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________________ निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व उत्तर - आत्मार्थी का कर्तव्य है कि अपने उद्देश्य को मुख्य रखकर हर एक कथन का अभिप्राय निकाले । 122 पांच समवाय युक्त सम्पन्न कार्य का ज्ञान कराने की जिनवाणी में दो पद्धतियाँ बताई गई हैं। जहाँ उपादान कारण की प्रधानता से कार्य की सम्पन्नता बताना हो, वहाँ उपादेय शब्द का प्रयोग किया जाता है। जहाँ निमित्त कारण की मुख्यता से कार्य का ज्ञान कराना हो वहाँ उसी कार्य (जिसको उपादेय कहा गया था) को नैमित्तिक कहकर परिचय कराया जाता है। (यहाँ नैमित्तिक शब्द से ऐसा अर्थ नहीं निकालना कि कार्य की सम्पन्नता में निमित्त का योगदान है)। अज्ञानी को उपादान कारणों का ज्ञान श्रद्धान नहीं होने से एवं निमित्त परिचित होने से उसको निमित्त की मुख्यता लेकर आत्मा के विकार का कर्ता आत्मा है ऐसा समझाना है, ज्ञानी को नहीं । करणानुयोग के ग्रंथों में बहुभाग कथन निमित्त की मुख्यता लेकर आत्मा की पर्यायों का ज्ञान कराया गया है; क्योंकि आत्मा के समयवर्ती भावों का उपादान की मुख्यता से ज्ञान कराना संभव नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि आत्मा को विकार का कर्ता मानने से ही इसका अभाव करके वीतरागता उत्पन्न करने का पुरुषार्थ एवं उद्देश्य सिद्ध हो सकता है। निमित्त को विकार का कर्ता मानने से तो स्वच्छन्दता उत्पन्न होगी। जिनवाणी में तो जब आत्मा के कार्य का वास्तविक कर्ता बताना हो तो, उस कार्य का कर्ता उपादान कारण होने से, उसके कार्य को उपादेय नाम से कहा है (यहाँ उपादेय का अर्थ ग्रहण करने योग्य नहीं समझ लेना) जब आत्मा में विकार होता है तो आत्मा के साथ नवीन निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व 123 द्रव्यकर्मों का एक क्षेत्रावगाहसंबंध रूप बन्ध होता है। ऐसे बन्ध रूप कार्य की उपादान कर्ता तो पुद्गल वर्गणाए हैं उसमें आत्मा का विकार रूपी कार्य पर हुआ, वह कर्मबन्ध में निमित्त है और कर्मबन्ध को नैमित्तिक कार्य कहा जाता है। द्रव्यकर्म के बन्धरूपी कार्य में भी आत्मा के विकार की समरूपता होती है। इसप्रकार दोनों की एक कालप्रत्यासति होने से निमित्त की जाति एवं उग्रता - मंदता के अनुसार ही बंध भी होता है। इसलिये बंध का भी ज्ञान निमित्त के द्वारा ही हो पाता है । इस अपेक्षा कर्मबन्ध को नैमित्तिक कहा जाता है। इसप्रकार भावकर्मों के साथ द्रव्यकर्मों के उदय की अनिवार्यता एवं आत्मा के साथ द्रव्यकर्मों के बन्ध होने की अनिवार्यता भली प्रकार सिद्ध हो जाती है। प्रश्न- द्रव्यकर्म के उदय के अनुसार भावकर्मों का होना तथा भावकर्मों के अनुसार द्रव्यकर्मों का बन्धन हो जाता है; तब फिर यह कड़ी टूटेगी कैसे ? अर्थात् आत्मा की मुक्ति कैसे होगी ? उत्तर- ऐसा मानना अत्यन्त भूल भरा है। अज्ञानी इस तथ्य को भूल जाता है कि एक आत्मा तो चेतनद्रव्य है और दूसरा द्रव्यकर्म अचेतन द्रव्य है आत्मा तो ज्ञानस्वभावी होने से हेय उपादेय को समझकर, हेय अर्थात् भावकर्मों को उत्पन्न नहीं होने देकर परम उपादेय ऐसी सिद्धदशा को प्राप्त कर सकता है और द्रव्यकर्म तो अचेतन द्रव्य है, वे तो अपने को जानते भी नहीं हैं, जिससे कि आत्मा को रागादि करा दे और न यह ही जानते हैं कि आत्मा ने भावकर्म किये। इसलिये मुझे इस को बांध लेना चाहिये। यह तो वस्तु की एवं विश्व की, सहज स्वाभाविक अकृत व्यवस्था है। इसी सिद्धान्त के अनुसार पुद्गल की कार्माण वर्गणाओं में ही
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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