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________________ 83 82 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व है। और इसी को पुरुषार्थ का यथार्थ उपयोग मानता हुआ प्रवर्तता रहता है। फलतः क्रमश: तारतम्यतापूर्वक स्थिरता को बढ़ाता हुआ, पूर्णदशा प्राप्त कर लेता है। प्रश्न- इसप्रकार तो जिनवाणी में बताया हुआ व्यवहार चारित्र का कथन, सब निरर्थक ठहरेगा? उत्तर - ऐसा नहीं है। व्यवहार चारित्र नाम ही यह घोषित करता है कि वह निश्चय अर्थात् वास्तविक चारित्र नहीं है, लेकिन निश्चय चारित्र के साथ ही अबिनाभावीरूप से पूर्ण होने तक पर्याय में अवश्य वर्तता है; ऐसा सहज वर्तने वाला अनिवार्य निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। इस ही कारण व्यवहार चारित्र को निमित्त एवं सहचारी भी कहा जाता है। साथ ही साधक आत्मा को इसका ज्ञान भी अवश्य ही होता है। कारण विकल्पात्मक भूमिका में निश्चय चारित्र के साथ अबिनाभावी रूप से सहजरूपसे वर्तने वाले परिणमनों का यथार्थ ज्ञान होने से ज्ञानी को अपनी निश्चय चारित्र की भूमिका का माप भी होता रहता है। गुणस्थानों की जिस-जिस भूमिका में चरणानुयोग में कथित व्यवहार के विकल्प (रागादि भाव) उत्पन्न होते रहना संभव है, वहाँ तक के भावों का होना वर्जनीय नहीं है, लेकिन जिसको उस मर्यादा को उल्लंघन करने वाले भाव (राग-विकल्प) उत्पन्न हो जाते हैं तो वह सावधान होकर स्वरूप स्थिरता बढ़ाकर अपनी आत्मा को मार्ग से च्युत नहीं होने देगा; अन्यथा अपनी अमूल्य भूमिका का अभाव कर देगा और संसारमार्गी हो जावेगा। व्यवहार चारित्र द्वारा अपने परिणाम को मापते रहनेवाले के लिये इसी कारण अतिचार-अनाचार का विधान है और ऐसे दोषों का अभावकर आत्मस्थिरता द्वारा पुर्नस्थापन करने के लिये व्यवहार ग्रन्थों में प्रायश्चित आदि का भी विधान है। इसीलिये जिनवाणी में कथन है कि साधक को "व्यवहार निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व जाना हुआ प्रयोजनवान् है" अर्थात् व्यवहार के द्वारा अपनी भूमिका मापते रहना प्रयोजनभूत है। प्रश्न - इसप्रकार तो व्यवहार चारित्र की मर्यादा मात्र भावों तक रहती है, लेकिन जिनवाणी में शारीरिक क्रियाओं के परिवर्तन को भी व्यवहार कहा है ? अत: इसका संबंध किसप्रकार है ? उत्तर- हे भव्य! तूने कथन के अभिप्राय को यथाप्रकार समझा नहीं है। अंतरंग शुद्धि अर्थात् निश्चय व्यवहार चारित्र के साथ वचनकाय के परिणमन का भी निमित्त-नैमित्तिक संबंध रहता है। अकेले मनगत भावों के साथ नहीं। लेकिन अंतरंगशुद्धि का माप तो सहज उठने वालेमनगत शुभाशुभ विकल्पों से ही किया जा सकता है लेकिन मात्र वचन एवं शारीरिक क्रियाओं से साधक अपनी भूमिका का सत्यापन (माप) नहीं कर सकता। जैसे अव्रतसम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती के आत्मा की अन्तरंग शुद्धि तो मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी के अभावात्मक, स्वरूप स्थिरता प्रगट होती है। उसके साथ ही मनगत भावों में नियम से सस्त व्यसनों के सेवन के अशुभभाव एवं मद्य, मांस, मधु सेवन के तथा चलते हुए त्रसों के घात वाले उदुम्बर फलों आदि के खाने जैसे अशुभभाव सहजरूप से ही उत्पन्न नहीं होते। तथा साथ ही देव-शास्त्र-गुरु पर अगाध श्रद्धा और भक्ति के शुभभाव एवं तत्त्वनिर्णय रूप अभ्यास में प्रवर्तने वाले शुभभाव भी सहजरूप से उठते रहते हैं। तदनुसार वचन भी ज्ञायक-अकर्ता स्वभाव के पोषक तथा पर के कर्तृत्व निषेधक और वीतरागता पोषक ही निकलते हैं। शारीरिक क्रियायें भी मनमत भावों के अनुसार सहज ही अशुभाचरण में नहीं प्रवर्तने एवं शुभभावों की पोषक क्रियाओं रूप वर्तने लगती हैं। ऐसा सहज स्वाभाविक वर्तने वाला निमित्त-नैमित्तिक संबंध होता ही है।
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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