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________________ 72 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व अनन्तवीर्य आदि अनन्तगुणों के निधान को अपनी पर्याय में प्रकट कर दिया। उनकी ऐसी पर्यायों के द्वारा, ध्रुव में बसी हुई अनन्तसामर्थ्यो का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। फलस्वरूप तुझे तेरे ध्रुव की अन्तर में महिमा जाग्रत हो जावेगी। तेरे ध्रुवभाव की शरण लेने से तेरा आत्मा भी सिद्ध भगवान बन सकेगा और अनन्त काल तक सर्वज्ञता के साथ अनन्तसुख का भोक्ता बन जावेगा। ऐसी श्रद्धा उत्पन्न होने पर, बाह्य के सभी सांसारिक सुखों के आकर्षणों को तिलाञ्जलि देकर, एकमात्र तेरा ध्रुवभाव ही तेरे आकर्षण का विषय है; ऐसी निःशंक श्रद्धा उत्पन्न ही जावेगी। यह फल अपने ध्रुव स्वभाव की अन्तर में महिमा के साथ विश्वास आने का है। जिनमार्ग में श्रद्धा को ही धर्म का मूल कहा है; यथा “दंसण मूलोधम्मो” । तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है "सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणीमोक्षमार्गः" अर्थात् सम्यग्श्रद्धा के साथ ज्ञान औरचारित्र की एकता ही मोक्ष का मार्ग है। बिना सम्यक् श्रद्धा उत्पन्न हुए, ज्ञान और चारित्र भी मिथ्या रहते हैं वे तीनों संसारमार्गी ही होते है। और सम्यक् श्रद्धा होते ही ज्ञान भी सम्यक् हो जाता है और अनंतानुबंधी (रागादि) का अभाव होकर सम्यक् चारित्र भी प्रारंभ होकर, मोक्षमार्ग प्रारंभ हो जाता है। उपरोक्त सहज व सरल मार्ग सुनकर आत्मार्थी की रुचि और भी उग्र हो जाती है और ऐसी श्रद्धा जाग्रत करने के लिये अति उत्साहवान होकर आत्मार्थी श्रीगुरु से पुनः प्रश्न करता है सम्यक् श्रद्धा उत्पन्न करने का उपाय प्रश्न - हे प्रभो ऐसी सम्यक् श्रद्धा उत्पन्न करने का मार्ग बताईये? उत्तर- उक्त सम्यक् श्रद्धा उत्पन्न करने का प्रारंभिक उपाय ही, निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व 73 समयसार ग्रन्थाधिराज की गाथा १ की टीका में आचार्य श्री अमृतचन्द्र देव ने बताया है - "ग्रन्थ के प्रारम्भ में सर्व सिद्धों को भाव-द्रव्य स्तुति से अपने आत्मा में तथा पर (शिष्य) के आत्मा में स्थापित करके इस समय नामक प्राभृत का.....।" यह कहकर आचार्य श्री ने तेरे आत्मा में भी सिद्धत्व की स्थापना करने की प्रतिज्ञा की है। इससे तुझे विचारना चाहिये कि तेरी आत्मा में कौनसा ऐसा स्थान है ? जिसमें सिद्धत्व का स्थापन किया जा सकता है। विचार करने पर तुझे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सिद्धत्व तो ध्रुव बना रहता है, सिद्धपना एक बार प्रगट होने के बाद अनन्तकाल तक बने रहने वाला ध्रुव है। अत: वह तो मेरे ध्रुव में ही विराजमान किया जा सकता है ? तात्पर्य यह है कि आचार्य श्री समझाते हैं कि तू स्वयं ध्रुव रहने वाला पदार्थ है और सिद्धत्व भी ध्रुव है, अत: निश्चित हुआ कि तेरा अस्तित्व ही सिद्ध समान है - यही तात्पर्य है सिद्धत्व को तेरे ध्रुव में स्थापन करने का। हे शिष्य! अब प्रमुदित होकर यह स्वीकार कर कि श्रद्धा अपेक्षा तो मैं सिद्ध ही हूँ। ये पर्यायें जो क्षण-क्षण में उत्पाद-व्यय करती हुई। मेरे में ज्ञात हो रही है, वह मेरा वास्तविक स्वरूप नहीं है। ऐसी श्रद्धा जाग्रत करना ही इस कथन का तात्पर्य है। ऐसी स्थापना करने का लाभ क्या होगा, यह भी आचार्यश्री उक्त टीका में ही आगे बताते हैं। "वे सिद्ध भगवान (जिनको तेरे आत्मा में स्थापन किया है) सिद्धत्व के कारण, साध्य जो आत्मा उसके प्रतिच्छन्द के स्थान पर हैं (प्रतिच्छन्द का अर्थ है प्रतिध्वनि) जिनके स्वरूप का संसारी भव्यजीव चितवन करके, उनके समान अपने स्वरूप को ध्याकर उन्हीं के समान हो जाते हैं और चारों गतियों से विलक्षण पंचमगति- मोक्ष को प्राप्त करते हैं।" ........................- ---.............mmmmmmmmmm
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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