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________________ 60 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व ज्ञानी की श्रद्धा में तो पूर्ण सर्वज्ञता प्रगट हो ही जाती है। श्री मद्राजचन्द्र ने कहा भी है कि “आत्मा को श्रद्धा अपेक्षा केवलज्ञान हुआ है। विचारदशा में वर्तता है, मुख्यनय से है आदि-आदि" लेकिन इतना होते हुए भी परिणति अथवा पर्याय में अंशरूप से वर्तता है ऐसा उनने भी कहीं नहीं लिखा है। तात्पर्य यह है कि इसप्रकार की मिथ्या मान्यताओं को तिलाञ्जलि देकर, एकमात्र ध्रुव त्रिकाली ज्ञायक की ही शरण लेकर अर्थात् आश्रय लेकर पर्याय मात्र की ओर से परिणति को समेटकर, एकमात्र ध्रुव को ही श्रद्धा का श्रद्धेय, ज्ञान का ज्ञेय एवं ध्यान का ध्येय बनाकर, आत्मा में सिद्ध दशा (पूर्ण वीतरागता एवं सर्वज्ञता) प्रगट करने का पुरुषार्थ करना चाहिये। यही द्वादशांग का सार है। छद्मस्थ ज्ञान की स्व-परप्रकाशकता ध्रुव की एकाग्रता में बाधक लगती है ? प्रश्न - छद्यस्थ को पर का ज्ञान रहते हुए, वह पर्याय ध्रुव में एकाग्र कैसे हो सकेगी ? उत्तर - इस संबंध में विस्तार से चर्चा तो की जा चुकी है, लेकिन फिर भी संक्षेप इसप्रकार है। हे आत्मार्थी बन्धु ! एकाग्रता तो छद्मस्थ ज्ञान में ही करनी है, क्षायिकज्ञान में नहीं होती। छद्यस्थ ज्ञान स्व-पर दोनों को प्रकाशित करने का ही कार्य करता है यह सत्य है। और यह भी सत्य है कि ज्ञान के जानने के विषय दो होने पर भी छद्यस्थ ज्ञान की एकाग्रता मात्र एक ही विषय में हो सकती है। इसलिये छद्यस्थ ज्ञान की जानने की प्रक्रिया समझना चाहिये। छद्यस्थ ज्ञान क्षयोमशमिक ज्ञान है, उसका जन्म ही लब्धि और उपयोगात्मक होता है यथा “लब्ध्युपयोगोभावेन्द्रियम्"। एक निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व इन्द्रिय से लगाकर पञ्चेन्द्रिय तक के प्राणियों में हर एक को, ज्ञान का जितना क्षयोपशम प्राप्त हुआ है, मात्र उतने ही विषय को उस जीव की ज्ञानपर्याय जान सकती है। उस जीव की ज्ञानपर्याय प्रगट होने के साथ लब्धि और उपयोगात्मक ही प्रगट होती है। उसकी उस ज्ञान पर्याय में स्व संबंधी विषय भी होते हैं तथा पर संबंधी विषय भी होते हैं क्षायोपशमिक ज्ञान की निर्बलता के कारण जब वह पर्याय जानने के लिये कार्यशील होती है तो पर्यायगत संपूर्ण विषयों (ज्ञेयों) को एकसाथ नहीं जान पाती; फलत: वह पर्याय अपनी स्वयं की योग्यता से जिस विषय की मुख्यता होती है, उसकी ओर एकाग्र हो जाती है, बाकी पर्यायगत संपूर्ण ज्ञेय पर्याय में व्यक्त होते हुए भी जानने से बाहर रह जाते हैं। इसप्रकार उन ज्ञेयों में से वह पर्याय जिस ज्ञेय की ओर एकाग्र होती है उस समय की उस जाननक्रिया को उपयोगात्मक जानना कहा जाता है अर्थात् ज्ञान का उस ज्ञेय के समीप होकर ज्ञान में जुड़ना वह उपयोग है, बाकी पर्यायगत जितने भी ज्ञेय रह गये उनको उस पर्याय का लब्धिगत ज्ञान कहा गया है। इसप्रकार उस ज्ञान पर्याय में आत्मा को तो स्व तथा पर सब प्रगट है, उसमें अज्ञात कोई भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन लोक व्यवहार में जिस ज्ञेय का उपयोगात्मकज्ञान होता है, उसका ही जानना दिखता है, इसलिये उसका ही ज्ञान हुआ ऐसा कहा जाता है व माना जाता है। जैसे रेलगाड़ी में बैठने के लिये, जिस नंबर के डिब्बे में हमारी सीट रिजर्व हो, मात्र उस नंबर को खोजने के लिये चलती गाड़ी में उपयोग केन्द्रित रहता है, उस समय स्टेशन पर आने जाने वाले व्यक्ति तथा रेल के सब डिब्बे एवं मुसाफिर भी ज्ञान में तो ज्ञात हुए हैं लेकिन ज्ञान उनमें नहीं अटकता फलतः उन सबका ज्ञान मात्र लब्ध्यात्मक मानना चाहिये। यह तो मात्र स्थूल द्रष्टान्त द्वारा समझाया है, आत्मा
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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