SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व 21 20 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व अनुभव हो रहा है। इसलिए उसी के अभाव को, वीतरागता का लक्षण कहकर वीतराग परिणति का ज्ञान कराया है। जिसका साक्षात् आदर्श (मॉडल) भगवान सिद्ध की आत्मा है, उनकी आत्मा में जो भी वर्तमान में व्यक्त/प्रगट है, वही आत्मा की वीतरागता का अस्ति अपेक्षा स्वरूप है। वह दशा अपनी आत्मा की पर्याय में प्रगट करना ही आत्मार्थी का एकमात्र उद्देश्य है। इसलिये संक्षेप से तो तात्पर्य यही है कि समस्त द्वादशांग को पढ़कर भी एकमात्र वीतरागता प्राप्त करने का उपाय ही समझने योग्य है अर्थात् जिसप्रकार और जैसे भी हो, उसी विधिको अपनाकर उसमें से एकमात्र वीतराग परिणति उत्पन्न करने का मार्ग ही समझ लेना और उसके अनुसार अपने उपयोग को आत्मसन्मुख कर लेना ही उस मार्ग का अनुसरण करना है, अपना उद्देश्य सफल करने का यही एकमात्र • उपाय है। भगवान महावीर स्वामी की आत्मा ने पूर्वभव में सिंह जैसी तिर्यंच दशा में भी, बिना कोई शास्त्र अभ्यास किए, इस मार्ग को अपनाकर जब भी अपना उपयोग आत्मसन्मुख किया तो आत्मानुभव कर सम्यक्त्व प्रगट किया; तत्पश्चात् कालांतर में पूर्ण वीतरागी होकर तीर्थंकर पद प्राप्तकर सिद्ध दशा को प्राप्त हुए। संक्षेप में सब कथनों का तात्पर्य यही है कि जैसे भी बन सके, उस उपाय से अपने आत्मा में एकमात्र वीतराग परिणति प्रगट करने का पुरुषार्थ करने योग्य है; क्योंकि उस ही से आत्मा चरमदशा को प्राप्त कर सकता है। सर्वज्ञता का स्वरूप सर्वज्ञता भी सिद्ध भगवान का स्वरूप है। ज्ञान तो आत्मा का त्रैकालिक स्वभाव एवं लक्षण है। ज्ञान की पूर्णप्रगटता ही सर्वज्ञता है। हम संसारी जीवों के वर्तमान में ज्ञान की अल्पता है, इसी कारण जानने की इच्छारूपी आकुलता से सब दुखी रहते हैं। सिद्ध भगवान सर्वज्ञ हैं, उनके ज्ञान में लोकालोक सब प्रत्यक्ष हैं और जानने की इच्छा का अभाव है, अत: वे परमसुखी हैं। वास्तव में तो ज्ञान का स्वभाव ही स्व-परप्रकाशक है, वह जानने रूपी क्रिया तो ज्ञान की ही है और वह आत्मा में रहते हुए ही होती है। जानने के लिये ज्ञान न तो ज्ञेय के पास जाता है और न ज्ञेय ही ज्ञान के पास आते हैं, लेकिन जानना तो ज्ञान में हो ही जाता है। वास्तविक स्थिति यह है कि संसारी आत्मा की ज्ञानपर्याय, प्राप्त क्षयोपशम की योग्यतानुसार स्वसंबंधी ज्ञेय के आकार तथा परसंबंधी ज्ञेयों के आकार रूप स्वयं ही परिणमी है। वे ज्ञेयाकार वास्तव में ज्ञान के ही आकार है अर्थात् ज्ञान की पर्याय ही उनरूप परिणमी है। उन ज्ञेयाकारों को ही ज्ञानपर्याय जानती है। लेकिन संसारी जीव का ज्ञान प्राय: परलक्ष्यी होकर ही परिणमता है। वह परलक्ष्यी ज्ञान इन्द्रियाधीन ही प्रवर्तन कर सकता है; इसलिये जिस ज्ञेय को जानने के लिये उपयोग एकाग्र होता है, मात्र उस ही का ज्ञान होता हुआ मालूम पड़ता है अन्य ज्ञेय रह जाते हैं। इन्द्रियज्ञान का विषय भी बहुत संकुचित रहता है। इसप्रकार परलक्ष्यी ज्ञान में सर्वज्ञता संभव ही नहीं है। जब आत्मा को परद्रव्यों की ओर का आकर्षण ही समाप्त हो जाता है और ज्ञान पूर्ण आत्मलक्ष्यी प्रवर्तता है, तब उपयोग का विषय एकमात्र ज्ञायक ही होता है, उस समय आत्मा की ज्ञानपर्याय में स्थित समस्त ज्ञेयाकारों का ज्ञान एक साथ प्रगट प्रकाशित हो उठता है। ज्ञान की ऐसी दशा ही सर्वज्ञता है। तात्पर्य यह है कि परलक्ष्यी इन्द्रियज्ञान सदैव अल्पज्ञ ही रहेगा और जो ज्ञानस्वलक्ष्यी होकर प्रवर्तता है, उसको इन्द्रियों का आलंबन नहीं रहता, वह ज्ञान अतीन्द्रिय होकर आत्मा से सीधा प्रवर्तने लगता
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy