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________________ णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन अरे, भाई ! हमारे तो चार बज गये हैं। चार बज गये हैं अर्थात् हम तो साठ वर्ष के हो गये हैं और अभी तक आत्मा नहीं मिला। ऐसे ही दो घंटे और निकल गये, दस-बीस वर्ष और निकल गये तो फिर क्या होगा हमारा। उस बालक के समान हमें भी इस बात की कल्पना है या नहीं? जरा, एक बार गंभीरता से विचार तो करो। ___ यह बहुमूल्य जीवन यों ही बीता जा रहा है और हम रंग-राग में ही मस्त हैं; क्या होगा हमारा? ___ आत्मखोजी की दृष्टि भी उस बालक जैसी ही होना चाहिए। जिसप्रकार वह बालक अपनी माँ की खोज की प्रक्रिया में अनेक महिलाओं को देखता है, पर उसकी दृष्टि किसी भी महिला पर जमती नहीं है । यह पता चलते ही कि यह मेरी माँ नहीं है; वह नजर फेर लेता है; उसी को देखता नहीं रहता। यह नहीं सोचता कि यह मेरी माँ तो नहीं है, पर है तो सुन्दर; किसी न किसी की माँ तो होगी ही; पता चलाओ कि यह किसकी माँ है?- ऐसे विकल्पों में नहीं उलझता; उसके सम्बन्ध में विकल्पों को लम्बाता नहीं है; अपितु तत्काल तत्सम्बन्धी विकल्पों से निवृत्त हो जाता है। उसीप्रकार आत्मार्थी को भी चाहिए कि वह परपदार्थों को जानते समय, उनके सम्बन्ध में व्यर्थ ही विकल्पों को लम्बा न करे । जिस प्रयोजन से उनका जानना बना है, उसकी सिद्धि होते ही तत्सम्बन्धी विकल्पों को विराम दे दे; किसी भी प्रयोजनभूत-अप्रयोजनभूत परपदार्थ को जानकर उसे ही जानते रहना आत्मार्थी का लक्षण नहीं है। अपनी माँ की खोज करनेवाला बालक किसी अन्य महिला की सुन्दरता पर रीझता नहीं है; उसे तो अपनी माँ चाहिए, दूसरी महिलाओं से उसे क्या उपलब्ध होनेवाला है? अपनी माँ की खोज में व्यस्त बालक के पास दृसरी महिलाओं का सौन्दर्य निरखने का समय ही कहाँ है,
SR No.009460
Book TitleNamokar Mahamantra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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