SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैं स्वयं भगवान हूँ आत्मज्ञान, श्रद्धान एवं आंशिक लीनता से आरम्भ मुक्ति के मार्ग पर आरूढ़ वह भव्यात्मा चक्रवर्ती की सम्पदा और इन्द्रों जैसे भोगों को भी तुच्छ समझने लगता है । कहा भी है " चक्रवर्ती की सम्पदा अर इन्द्र सारिखे भोग । कागवीट सम गिनत हैं सम्यग्दृष्टि लोग ॥ " - पिता के मित्र रिक्शेवाले युवक से यह बात रिक्शा स्टेण्ड पर ही कर रहे थे। उनकी यह सब बात रिक्शे पर बैठे-बैठे ही हो रही थी 1 इतने में एक सवारी ने आवाज दी "ऐ रिक्शेवाले ! स्टेशन चलेगा?" उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया- " नहीं ।" "क्यों? चलो न भाई, जरा जल्दी जाना है, दो रुपये की जगह पाँच रुपये ले लेना, पर चलो, जल्दी चलो।" " ६५ "नहीं; नहीं जाना, एक बार कह दिया न ।" " कह दिया पर उसकी बात जाने दो, अब मैं आपसे ही पूछता हूँ कि क्या वह अब भी सवारी ले जायेगा? यदि ले जायेगा तो कितने में? दस रुपये में, बीस रुपये में ? क्या कहा, कितने ही रुपये दो, पर अब वह रिक्शा नहीं चलायेगा । "क्यों?" 'क्योंकि अब वह करोड़पति हो गया है।" 44 'अरे भाई, अभी तो मात्र पता ही चला है, अभी रुपये हाथ में कहाँ आये हैं?" ?? "कुछ भी हो, अब उससे रिक्शा नहीं चलेगा; क्योंकि करोड़पति रिक्शा नहीं चलाया करते । 2
SR No.009460
Book TitleNamokar Mahamantra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy