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________________ णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन २२ मार्ग पर चले, वह स्वयं भगवान बन जाता है। अतः जिनेन्द्र भगवान की भक्ति उन जैसा बनने की भावना से ही की जाती है। जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र के निम्नांकित मंगलाचरण से स्पष्ट है। मोक्षमार्गस्य नेत्तारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ जो मोक्षमार्ग के नेता हैं. कर्मरूपी पर्वतों के भेदन करने वाले हैं और विश्व के समस्त तत्त्वों को जानने वाले हैं; अर्थात् जो हितोपदेशी, वीतरागी और सर्वज्ञ हैं; उक्त गुणों की प्राप्ति के लिए मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। उक्त छन्द में भगवान के गुणों को स्मरण करते हुए मात्र भगवान बनने की भावना व्यक्त की गई है; भगवान से कुछ करने की प्रार्थना नहीं की गई है, न ही उनसे कुछ मांगा गया है। जैनदर्शन में भगवान की वीतरागता पर सबसे अधिक बल दिया गया है । जब कोई आत्मा अरहंत बनता है तो सबसे पहले वह वीतरागी होता है, उसके बाद सर्वज्ञ और उसके भी बाद जब उसकी दिव्यध्वनि खिरती है, तब वह हितोपदेशी विशेषण को सार्थक करता है। इस तरह यह सिद्ध है कि वीतरागी हुए बिना सर्वज्ञता सम्भव नहीं है और वीतरागी - सर्वज्ञ हुए बिना हितोपदेशी होना सम्भव नहीं है। उक्त सन्दर्भ में भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति में लिखा गया निम्नांकित छन्द द्रष्टव्य है : -: कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचितं कर्म कुर्वति प्रभुस्तुल्य मनोवृति: पार्श्वनाथ: जिनोऽस्तु नः ॥ हे भगवान पार्श्वनाथ ! कमठ ने आप पर उपसर्ग किया और धरणेन्द्र ने रक्षा करने का भाव किया। उन्होंने अपनी-अपनी वृत्ति के अनुसार उचित ही कार्य किया; क्योंकि कमठ को आपसे द्वेष था और धरणेन्द्र को राग और रागद्वेष करने वालों की वृत्ति और प्रवृत्ति ऐसी ही होती है। पर हे भगवान आपकी मनोवृत्ति दोनों में समान ही रही; न तो आपने उपसर्ग करने वाले कमठ से द्वेष
SR No.009460
Book TitleNamokar Mahamantra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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